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UP Police Commissioner System | पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू
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वर्तमान में देश के 15 राज्यों के 71 महानगरों में पुलिस कमिश्नर व्यवस्था लागू है। इसके अलावा लखनऊ और नोएडा में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू हो गया है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय श्री योगी आदित्य नाथ ने 14 जनवरी 2020 को इसकी घोषणा करते हुए कहा हमारी सरकार ने पुलिस व्यवस्था सुधार दिशा में एक बड़ा फैसला लिया है। लखनऊ और नोएडा में पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को मजूरी दे कर सुरक्षा व कानून व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में लिया यह निर्णय अति आवश्यक है।
क्या होती है पुलिस आयुक्त प्रणाली
इस प्रणाली के तहत किसी विशेष जिले में (आमतौर पर महानगर में) जो शक्तियां प्रशासनिक अधिकारियों ( वरिष्ठ IAS अधिकारी या जिलाधिकारी) के पास होती हैं।
वह शक्तियां पुलिस कमिश्नर को दे दी जाती हैं ताकि जरूरत पड़ने पर पुलिस कमिश्नर बिना किसी रूकावट के बिना किसी प्रतिबंध के कानूनी कार्यवाही को पूर्ण कर सकें और पुलिस को प्राप्त विशेष शक्तियों (सामान्य पुलिसिंग) के इस्तेमाल करने के लिए किसी प्रशासनिक अधिकारी से इजाजत ना लेनी पड़े। क्योंकि इस प्रणाली में पुलिस बल के सर्वोच्च अधिकारी के पास कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संबंधित अहम शक्तियां आ जाती हैं। जिससे वह पुलिस अधिकारी अपने अधीन अधिकारीयों को आसानी से निर्देश देते हुए अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था को बनाए रख सकता है।
क्यों पड़ी ज़रुरत ?
भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 व सीआरपीसी (CrPC) के तहत 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर में कमिश्नर प्रणाली की व्यवस्था की गई है। वर्तमान में लखनऊ की आबादी करीब 40 लाख है और नोएडा की आबादी करीब पच्चीस लाख।
पहले इस व्यवस्था के तहत जिला स्तर पर पुलिस बल की व्यवस्था का नियंत्रण जिलाधिकारी के पास मौजूद थी। लेकिन अहम् मुद्दा यह है कि कानून व्यवस्था के मोर्चे पर कार्यवाही करने के लिए पुलिस को प्रशासन से अनुमति लेनी होती थी। उसमें पुलिस प्रशासन की निगरानी के लिए पुलिस अधीक्षक और जिला प्रशासन के साथ समन्वय स्थापित करना होता था।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के तहत एक जिलाधिकारी को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कई शक्तियां प्रदान की जाती हैं। किसी भी जिले में सामान्य पुलिस व्यवस्था के अंतर्गत यदि किसी पुलिस अधिकारी या कर्मचारी का तबादला किया जाना होता है तो इसके लिए एसएसपी (SSP) रैंक के अधिकारी को जिलाधिकारी से मंजूरी लेनी होती है।
इसी प्रकार से किसी विशेष क्षेत्र में धारा 144 लगाना। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 को लागू करना या कर्फ्यू लगाने के अधिकार भी प्रशासनिक अधिकारियों के पास होते थे। आमतौर पर सामान्य पुलिसिंग के तहत जब किसी भी क्षेत्र में दंगा होता है तो पुलिस बल को लाठीचार्ज करने या फायरिंग करने के लिए एक प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति लेनी होती है।
इसके अलावा जब किसी स्थान पर शांति भंग जैसी घटनाएं होती हैं तो दंड संहिता के अंतर्गत व विभिन्न धाराओं के अंतर्गत आरोपी को जेल भेजना या उसे जमानत देनी है इसका फैसला भी प्रशासनिक अधिकारी के अनुमति के बाद ही होता है।
लेकिन वर्तमान समय में महानगर स्तर पर कई राज्यों ने इस दोहरी प्रणाली को पुलिस आयुक्त प्रणाली के साथ बदल दिया है क्योंकि यह प्रणाली महानगर के जटिल मुद्दों को हल करने के लिए तेजी से आसानी से निर्णय लेने की अनुमति प्रदान करता है। ऐसे में यदि धारा 144 व निरोधात्मक कार्यवाही का अधिकार पुलिस के पास होगा तो नियंत्रण आसान हो सकेगा।
संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत पुलिस सब्जेक्ट राज्य सूची के अंतर्गत आता है।
जिसका अर्थ है कि देश के प्रत्येक राज्य आमतौर पर इस विषय पर कानून बना सकते हैं। पुलिस बल को नियंत्रण कर सकते हैं। इस नियम के तहत राज्य की कानून व्यवस्था को भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 के भाग 4 के अंतर्गत एक आईएएस रैंक के अधिकारी के पास में जिले के पुलिस का नियंत्रण दिया जाता है। ऐसा व्यक्ति जिले में राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद होता है और ऐसे व्यक्ति को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (जिलाधिकारी) कहा जाता है।
लखनऊ में इसके तहत क्या बड़े बदलाव होंगे
लखनऊ व गौतमबुद्ध नगर में पुलिस आयुक्त और उनके सहयोगियों को 15 अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट के रूप में काम करने के अधिकार मिल जायेंगे।
उपयुक्त अधिकार अब तक जिलाधिकारी व प्रशासनिक अधिकारों के पास मौजूद थे।
जो अब नहीं रहेंगे और यह अधिकार सीधे पुलिस आयुक्त को मिल जायेंगे। लेकिन राजस्व से जुड़े अधिकार डीएम के पास सुरक्षित रहेंगे।
जैसे
पुलिस आयुक्त प्रणाली में यह सभी शक्तियां एक पुलिस आयुक्त के पास आ जाती हैं किंतु कुछ विशेष मामलों में राज्य सरकार सीआरपीसी की धारा 20(5) के तहत पुलिस आयुक्त को एक कार्यकारिणी मजिस्ट्रेट की कानूनी शक्तियां प्रदान कर सकती है।
कैसे व्यवस्था संचालित होती है?
गौतमबुद्धनगर एडीजी (ADJ) रैंक के अधिकारी को आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जाएगा। उनके अधीन दो डीआईजी रैंक के अधिकारी काम करेंगे जबकि पांच पुलिस अधीक्षक इन दो डीआईजी के अधीन कार्य करेंगे। लखनऊ के तरह गौतमबुद्धनगर में भी महिला सुरक्षा के लिए एक विशेष पुलिस अधीक्षक पद होगा और दूसरा यातायात के लिए होगा। यह भी निर्णय लिया गया है कि मजिस्ट्रियल शक्तियां इन अधिकारियों को सौंप दी जाएंगी।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय श्री योगी आदित्य नाथ ने 14 जनवरी 2020 को इसकी घोषणा करते हुए कहा हमारी सरकार ने पुलिस व्यवस्था सुधार दिशा में एक बड़ा फैसला लिया है। लखनऊ और नोएडा में पुलिस कमिश्नर व्यवस्था को मजूरी दे कर सुरक्षा व कानून व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में लिया यह निर्णय अति आवश्यक है।
क्या होती है पुलिस आयुक्त प्रणाली
इस प्रणाली के तहत किसी विशेष जिले में (आमतौर पर महानगर में) जो शक्तियां प्रशासनिक अधिकारियों ( वरिष्ठ IAS अधिकारी या जिलाधिकारी) के पास होती हैं।
वह शक्तियां पुलिस कमिश्नर को दे दी जाती हैं ताकि जरूरत पड़ने पर पुलिस कमिश्नर बिना किसी रूकावट के बिना किसी प्रतिबंध के कानूनी कार्यवाही को पूर्ण कर सकें और पुलिस को प्राप्त विशेष शक्तियों (सामान्य पुलिसिंग) के इस्तेमाल करने के लिए किसी प्रशासनिक अधिकारी से इजाजत ना लेनी पड़े। क्योंकि इस प्रणाली में पुलिस बल के सर्वोच्च अधिकारी के पास कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संबंधित अहम शक्तियां आ जाती हैं। जिससे वह पुलिस अधिकारी अपने अधीन अधिकारीयों को आसानी से निर्देश देते हुए अपने क्षेत्र में कानून व्यवस्था को बनाए रख सकता है।
क्यों पड़ी ज़रुरत ?
भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 व सीआरपीसी (CrPC) के तहत 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहर में कमिश्नर प्रणाली की व्यवस्था की गई है। वर्तमान में लखनऊ की आबादी करीब 40 लाख है और नोएडा की आबादी करीब पच्चीस लाख।
पहले इस व्यवस्था के तहत जिला स्तर पर पुलिस बल की व्यवस्था का नियंत्रण जिलाधिकारी के पास मौजूद थी। लेकिन अहम् मुद्दा यह है कि कानून व्यवस्था के मोर्चे पर कार्यवाही करने के लिए पुलिस को प्रशासन से अनुमति लेनी होती थी। उसमें पुलिस प्रशासन की निगरानी के लिए पुलिस अधीक्षक और जिला प्रशासन के साथ समन्वय स्थापित करना होता था।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के तहत एक जिलाधिकारी को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कई शक्तियां प्रदान की जाती हैं। किसी भी जिले में सामान्य पुलिस व्यवस्था के अंतर्गत यदि किसी पुलिस अधिकारी या कर्मचारी का तबादला किया जाना होता है तो इसके लिए एसएसपी (SSP) रैंक के अधिकारी को जिलाधिकारी से मंजूरी लेनी होती है।
इसी प्रकार से किसी विशेष क्षेत्र में धारा 144 लगाना। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 को लागू करना या कर्फ्यू लगाने के अधिकार भी प्रशासनिक अधिकारियों के पास होते थे। आमतौर पर सामान्य पुलिसिंग के तहत जब किसी भी क्षेत्र में दंगा होता है तो पुलिस बल को लाठीचार्ज करने या फायरिंग करने के लिए एक प्रशासनिक अधिकारी से अनुमति लेनी होती है।
इसके अलावा जब किसी स्थान पर शांति भंग जैसी घटनाएं होती हैं तो दंड संहिता के अंतर्गत व विभिन्न धाराओं के अंतर्गत आरोपी को जेल भेजना या उसे जमानत देनी है इसका फैसला भी प्रशासनिक अधिकारी के अनुमति के बाद ही होता है।
लेकिन वर्तमान समय में महानगर स्तर पर कई राज्यों ने इस दोहरी प्रणाली को पुलिस आयुक्त प्रणाली के साथ बदल दिया है क्योंकि यह प्रणाली महानगर के जटिल मुद्दों को हल करने के लिए तेजी से आसानी से निर्णय लेने की अनुमति प्रदान करता है। ऐसे में यदि धारा 144 व निरोधात्मक कार्यवाही का अधिकार पुलिस के पास होगा तो नियंत्रण आसान हो सकेगा।
- अब डीएम के पास पुलिस का नियंत्रण अब नहीं रहेगा।
- धारा 144 लागू करने, कर्फ्यू लगाने का अधिकार गैंगस्टर और गुंडा एक्ट की कार्यवाही पुलिस सीधे कर सकेगी।
- जुलूस प्रदर्शन की अनुमति अब पुलिस दे सकेगी।
- सीआरपीसी की धारा 151 के तहत निरोधात्मक कार्यवाही भी पुलिस के अधिकार क्षेत्र में आ जाएगी।
संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत पुलिस सब्जेक्ट राज्य सूची के अंतर्गत आता है।
जिसका अर्थ है कि देश के प्रत्येक राज्य आमतौर पर इस विषय पर कानून बना सकते हैं। पुलिस बल को नियंत्रण कर सकते हैं। इस नियम के तहत राज्य की कानून व्यवस्था को भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 के भाग 4 के अंतर्गत एक आईएएस रैंक के अधिकारी के पास में जिले के पुलिस का नियंत्रण दिया जाता है। ऐसा व्यक्ति जिले में राज्य सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद होता है और ऐसे व्यक्ति को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (जिलाधिकारी) कहा जाता है।
लखनऊ में इसके तहत क्या बड़े बदलाव होंगे
लखनऊ व गौतमबुद्ध नगर में पुलिस आयुक्त और उनके सहयोगियों को 15 अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट के रूप में काम करने के अधिकार मिल जायेंगे।
- आईपीसी की धारा 58 व अध्याय 8 (परिशांति कायम रखने के लिए और सदाचार के लिए प्रतिभूति) और अध्याय 10 (लोक व्यवस्था व शांति बनाए रखना)
- यूपी गिरोह बंदी और समाज विरोधी क्रियाकलाप निवारण अधिनियम, 1986 (गैंगस्टर एक्ट)
- यूपी गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 (यूपी अधिनियम संख्या, 8 सन 1971, गुंडा एक्ट)
- विष अधिनियम, 1919
- अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम, 1956
- पुलिस (द्रोह उद्दीपन) अधिनियम, 1922
- पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960
- विस्फोटक अधिनियम, 1884
- कारागार अधिनियम, 1894
- सरकारी गोपनीयता अधिनियम, 1923
- विदेशी अधिनियम 1946
- गैर कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम
- भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861
- यूपी अग्निशमन सेवा अधिनियम, 1944
- यूपी अग्नि निवारण एवं अग्नि सुरक्षा अधिनियम, 2005
उपयुक्त अधिकार अब तक जिलाधिकारी व प्रशासनिक अधिकारों के पास मौजूद थे।
जो अब नहीं रहेंगे और यह अधिकार सीधे पुलिस आयुक्त को मिल जायेंगे। लेकिन राजस्व से जुड़े अधिकार डीएम के पास सुरक्षित रहेंगे।
जैसे
- आर्म्स एक्ट
- सराय एक्ट
- आबकारी
- मनोरंजन कर
- परिवहन कर आदि जैसे मुद्दे के अधिकार जिलाधिकारी के पास सुरक्षित रहेंगे।
पुलिस आयुक्त प्रणाली में यह सभी शक्तियां एक पुलिस आयुक्त के पास आ जाती हैं किंतु कुछ विशेष मामलों में राज्य सरकार सीआरपीसी की धारा 20(5) के तहत पुलिस आयुक्त को एक कार्यकारिणी मजिस्ट्रेट की कानूनी शक्तियां प्रदान कर सकती है।
कैसे व्यवस्था संचालित होती है?
- कमिश्नर प्रणाली में पुलिस को तमाम प्रशासनिक अधिकार मिलते हैं।
- इस प्रणाली में आयुक्त (CP) एकीकृत पुलिस कमांड संरचना का प्रमुख बनता है। जो शहर में सुरक्षा बल का अधिकारी होता है और राज्य सरकार के प्रति उत्तरदाई होता है।
- ऐसे पुलिस आयुक्त में मजिस्ट्रेट शक्तियां निहित होती हैं।
उत्तर प्रदेश में पुलिस आयुक्त व्यवस्था का इतिहास
उत्तर प्रदेश में 42 साल पूर्व 1978 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रामनरेश यादव ने पुलिस में कमिश्नर सिस्टम लागू करने की इच्छाशक्ति जगाई थी तथा 3 सदस्य समिति भी बना दी गई थी। कमेटी का हिस्सा रहे तत्कालीन विशेष सचिव गृह कल्याण कुमार बख्शी ने राम नरेश यादव के निर्देश पर तत्कालीन गृह मंत्री रामसिंह, मुख्य सचिव दिलीप कुमार भट्टाचार्य, गृह सचिव प्रकाश चंद्र जैन और आईजीपी लाल सिंह वर्मा ने तीन सदस्यीय कमेटी बनाई। इसके अलावा डीआईजी वासुदेव पंजानी और कानून सचिव नारायण दास शामिल थे। नारायण दास ने ही आयुक्त प्रणाली का ड्राफ्ट तैयार किया था। जिन शहरों में व्यवस्था लागू थी, उनका अध्ययन भी किया था। 1979 की शुरुआत में कानपुर में पुलिस कमिश्नर सिस्टम लागू करने का प्रस्ताव कैबिनेट में रखा गया लेकिन वहां से पास नहीं हो पाया।
लखनऊ में यह होगी व्यवस्था
लखनऊ में नगर निगम सीमा विस्तार के बाद अब कुल 40 पुलिस स्टेशन है जो अब पुलिस प्रणाली के तहत पुलिस आयुक्त के पास आ जायेंगे।
पुलिस कमिश्नर प्रणाली के तहत लखनऊ में एक अपर पुलिस महानिदेशक रैंक का अधिकारी होगा। जिसे आयुक्त बनाया जाएगा। उसके अधीन दो संयुक्त पुलिस अधिकारी होंगे जो पुलिस महानिरीक्षक रैंक के अधिकारी होंगे।
पुलिस कमिश्नर प्रणाली के तहत लखनऊ में एक अपर पुलिस महानिदेशक रैंक का अधिकारी होगा। जिसे आयुक्त बनाया जाएगा। उसके अधीन दो संयुक्त पुलिस अधिकारी होंगे जो पुलिस महानिरीक्षक रैंक के अधिकारी होंगे।
इसके अलावा एक महिला सुरक्षा के लिए विशेष एसपी भी नियुक्ति की जाएगी। वह महिलाओं से संबंधित अपराध पर नियंत्रण और महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों पर समय पर जांच हो इस बात का ख्याल रखेगी। विशेष महिला एसपी का अधिकार क्षेत्र होगा कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में चार्जशीट समय पर दायर की जाए।
इसके अलावा एक अन्य एसपी रैंक का अधिकारी होगा जो ट्रैफिक प्रबंधन का प्रभारी होगा और उसके अधीन एक अतिरिक्त एसपी रैंक का अधिकारी होगा।
लखनऊ के पहले कमिश्नर
लखनऊ के पहले कमिश्नर वर्ष 1994 बैच के आईपीएस अफसर ADJ सुजीत पांडे होंगे।एडीजी सुजीत पांडे को राजधानी राजधानी में तैनाती का पूर्व अनुभव है। 1998 में एसपी सिटी के पद पर तैनात रहे सुजीत पांडे को शिया-सुन्नी दंगा नियंत्रण करने में अहम भूमिका निभाने पर राज्य सरकार ने सम्मानित भी किया था। इसके बाद वह आईजी रेंज लखनऊ भी रहे हैं। और अब सुजीत पांडे के पास राजधानी लखनऊ में डीआईजी बनने के रास्ते खुल गए हैं।
गौतमबुधः नगर की व्यवस्था इसके अलावा एक अन्य एसपी रैंक का अधिकारी होगा जो ट्रैफिक प्रबंधन का प्रभारी होगा और उसके अधीन एक अतिरिक्त एसपी रैंक का अधिकारी होगा।
लखनऊ के पहले कमिश्नर
लखनऊ के पहले कमिश्नर वर्ष 1994 बैच के आईपीएस अफसर ADJ सुजीत पांडे होंगे।एडीजी सुजीत पांडे को राजधानी राजधानी में तैनाती का पूर्व अनुभव है। 1998 में एसपी सिटी के पद पर तैनात रहे सुजीत पांडे को शिया-सुन्नी दंगा नियंत्रण करने में अहम भूमिका निभाने पर राज्य सरकार ने सम्मानित भी किया था। इसके बाद वह आईजी रेंज लखनऊ भी रहे हैं। और अब सुजीत पांडे के पास राजधानी लखनऊ में डीआईजी बनने के रास्ते खुल गए हैं।
गौतमबुद्धनगर एडीजी (ADJ) रैंक के अधिकारी को आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जाएगा। उनके अधीन दो डीआईजी रैंक के अधिकारी काम करेंगे जबकि पांच पुलिस अधीक्षक इन दो डीआईजी के अधीन कार्य करेंगे। लखनऊ के तरह गौतमबुद्धनगर में भी महिला सुरक्षा के लिए एक विशेष पुलिस अधीक्षक पद होगा और दूसरा यातायात के लिए होगा। यह भी निर्णय लिया गया है कि मजिस्ट्रियल शक्तियां इन अधिकारियों को सौंप दी जाएंगी।
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हर व्यक्ति के जीवन में कई प्रकार की घटनाएं घटित होती रहती है। जाने अनजाने में कभी कभी व्यक्ति से अपराध भी हो जाता है और कभी-कभी आपसी रंजिश के कारण अन्य व्यक्ति के द्वारा भी किसी व्यक्ति को झूठे मामले में फसाया जाता है। किसी केस में नाम आने से पुलिस द्वारा संबंधित व्यक्ति की गिरफ्तारी कर ली जाती है। ऐसे में बिना कोई अपराध किये ही केवल आपसी रंजिश के कारण संबंधित व्यक्ति को काफी परेशानी उठानी पड़ सकती है। लेकिन ऐसे व्यक्ति के लिए कानून में जमानत लेने का अधिकार प्रदान किया गया है और इस अधिकार का उपयोग करके कोई भी व्यक्ति जमानत प्राप्त कर सकता है लेकिन अपराध की गंभीरता को देखते हुए कई ऐसे अपराध है। जिनके लिए कानून में जमानत की व्यवस्था नहीं की गई है। इसलिए आज आपको इस आर्टिकल के माध्यम से बेल यानि ज़मानत के बारे में पूरी जानकारी देंगे जिससे आपको काफ़ी मदद भी मिल सकती है। इस आर्टिकल के माध्यम से आप जानेंगे की- जमानत क्या है? किसी व्यक्ति की जमानत कैसे ले सकते हैं? ज़मानत लेने पर क्या रिस्क है? किसी अपराधी की जमानत का विरोध कैसे करें? जमानत ना मिलाने की स्थिति में क्या करें? जमानत क्या है? जब क
जानिए दाखिल खारिज़ क्यों ज़रूरी है और नहीं होने पर क्या नुकसान हो सकतें हैं?
ऑनलाइन आवेदन दाखिल-खारिज करते समय आवश्यक कागजात क्या है? यदि आप दाखिल-खारिज के लिए ऑनलाइन आवेदन करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको ज़मीन के सम्बन्ध जानकारियों को ऑनलाइन आवेदन करते समय भरना होगा। जैसे ज़मीन का बैनामा किस तिथि को कराया गया था। किस निबंधन कार्यालय में कराया गया था। किस क्रम संख्या व प्रपत्र पर आपका बैनामा दर्ज है। इसके बाद आप जरूरी जानकारी ऑनलाइन फॉर्म में भरने के बाद सबमिट कर देंगे। लेकिन याद रखें अगर उत्तर प्रदेश में दाखिल-खारिज का आवेदन करना चाहते हैं तो 2012 के बाद कराए गए बैनामों का ही दाखिल खारिज ऑनलाइन संभव है। इसके पहले के दाखिल खारिज कराने के लिए आपको संबंधित तहसील में जाकर आवेदन करना होगा। ज़मीन खरीदने के कितने दिन बाद दाखिल-खारिज करवाना होता है? अमूमन दाखिल खारिज कराने की प्रक्रिया बैनामा के तुरंत बाद कराई जा सकती है। लेकिन दाखिल खारिज होने में लगभग 45 दिन का समय लग जाता है। यह संबंधित कार्यालयों में अलग-अलग हो सकते हैं। क्योंकि दाखिल-खारिज की प्रक्रिया में लेखपाल व राजस्व निरीक्षक के रिपोर्ट दाखिल होने के बाद ही नामांतरण का आदेश किया जाता है। इसलिए इस प्रक्रिया
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