अंतर धार्मिक विवाह करने के लिए किसकी अनुमति ज़रूरी है? क्या कोर्ट मैरिज रजिस्ट्रार विवाह पंजीकरण करने से इनकार कर सकता है? जानिए प्राविधान

तलाक़ लेने से पहले इससे जुड़े प्रावधान, पति पत्नी के अधिकार और क़ानून जान लेना बेहतर होता है। आज इस लेख में ऐसे ही प्रश्नों के जवाब जानिए जानेमाने अधिवक्ता आशुतोष कुमार से।
भारतीय कानून के अनुसार तलाक पति और पत्नी दोनों की रजामंदी से ही हो सकता है। लेकिन जब एक पक्ष तलाक़ लेने पर अड़ा हो और दूसरा पक्ष दोबारा साथ भी नहीं रहने चाहता तो ऐसे में क़ानूनी समस्या पैदा हो जाती है। इस मामले में कोर्ट किसी पक्ष को मजबूर नहीं कर सकता। ऐसे में तलाक़ लेने की प्रक्रिया के लिए किसी अनुभवी वकील से ही मामले की सहायता लेना अच्छा होता है।
अगर पत्नी दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए तथा भारतीय दण्ड सहिंता (आईपीसी) धारा 498A के तहत झूठा केस करती है तो पति दण्ड प्रक्रिया सहिंता (सीआरपीसी) की धारा 227 के तहत अपनी पत्नी के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकता है कि उसकी पत्नी ने उसके खिलाफ झूठा केस किया है। लेकिन यह बात उसे कोर्ट में साबित करनी होगी की उसके द्वारा लगाये गए आरोप का आधार क्या है।
हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-25 के तहत पति व पत्नी दोनों को एक दूसरे से भरण पोषण मांगने का अधिकार रखते हैं। इतना ही नहीं, तलाक होने के बाद भी पति व पत्नी एक दूसरे से भरण पोषण दिलाने की मांग कोर्ट के समक्ष कर सकते हैं और कोर्ट इसका आदेश दे सकता है।
इसके लिए आप लीगल नोटिस की मदद से अपनी पत्नी को कानूनी नोटिस भेज सकते हैं। जिसमें आप सारी बातों को लिखेंगे कि आप काफी दिनों से अर्थात महीनों सालों से अपने पति को छोड़कर अपने मायके में जा कर रह रही है और ना ही तो बातचीत करते हैं और ना ही इस मामले को निपटाना चाहते हैं।
तलाक से उबरने में किसी व्यक्ति कितना समय लगता है यह कह पाना मुश्किल है लेकिन शोक में डूबे किसी व्यक्ति को दुःख के कई चरणों से गुजरना पद सकता है। इस अवधि की भावनात्मक तीव्रता आमतौर पर अलगाव के पहले छह महीनों के भीतर चरम पर पहुंच जाती है। हालाँकि, समझदारी से काम लेने पर इससे जल्दी उबर जा सकता जा सकता है अन्यथा की स्थिति में इस प्रक्रिया में दो साल तक का समय लग सकता है।
हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 के अनुसार, कंटेस्टेड डाइवोर्स (तलाक़) होने के बाद दोनों पार्टनर्स को दूसरी शादी करने के लिए, डाइवोर्स (तलाक़) की डिक्री जारी होने के कम से कम 3 महीने या 90 दिनों का वेट/इंतज़ार करना होता है। अगर डाइवोर्सी (तलाकशुदा) व्यक्ति 90 दिनों से पहले शादी कर लेता है, तो उस दूसरी शादी की कानून की नज़र में कोई अहमियत नहीं है। और अपने आप वह शादी गैर क़ानूनी हो जाएगी
हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 के अनुसार अगर बच्चा 5 साल से नीचे का है तो उसकी कस्टडी मां को ही दी जाती है। लेकिन बच्चा अगर 9 साल से ऊपर का है तो वह कोर्ट में खुद अपनी बात रख सकता है कि वह माँ या पिता में से किसके पास जाना चाहता है। अगर बच्चा अगर बड़ा हो गया है तो उसकी कस्टडी अकसर पिता को मिलती है। मामला बेटी का हो तो उसकी कस्टडी मां को मिलती है।
हिंदू धर्म में दूसरी शादी का कानून अपराध है जबतक की पहली पत्नी से तलाक न हो गया हो। इसके अलवा यह भारतीय दण्ड सहिंता (आईपीसी) की धारा 494 के तहत भी अपराध है। इस मामले में दोषी को 7 साल की सजा और जुर्माना दोनों हो सकता है।
हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 में वर्ष 1956 में एक सुधार किया गया जिसके बाद भारत में हिन्दुओं के लिए बहुविवाह अवैध हो गया। यह कानून मुसलमानों को छोड़कर अपने सभी नागरिकों के लिए समान रूप से है। वहीँ मुस्लिम विधि के अनुसार मुसलमानों को चार पत्नियाँ रखने की अनुमति है। आपकी जानकारी के लिए बता दें की गोवा में और पश्चिमी तट पर हिंदुओं के लिए द्विविवाह कानूनी है। एक बहुविवाही हिंदू विवाह बातिल और शून्य है।
तलाक के बाद न सिर्फ पार्टनर अलग होता है, बल्कि परिवार का साथ, उनका प्यार और अन्य सहूलियतें भी छूट जाती हैं। साथ रह जाता है तो बस अकेलापन और मायूसी लेकिन तलाक जिंदगी का अंत नहीं है। थोड़ी सी समझदारी और सूझ-बूझ दिखाकर अलगाव के बाद भी जीवन की नई शुरुआत की जा सकती है।
तलाक़ के वक्त यह महिला पर निर्भर करता है की वह अपने अधिकारों के तहत किन-किन चीजों की मांग करना चाहती है। लेकिन आम तौर पर पत्नी को निम्न चीजों की मांग करने की सलाह दी जाती है। संपत्ति का एक उचित हिस्सा। आप और आपके साथी की शादी जितनी अधिक होगी, उतनी ही अधिक संभावना है कि आपके पास बहुत सारी मिश्रित वैवाहिक संपत्तियां होंगी जिन्हें अलग करने और विभाजित करने की आवश्यकता है।
यदि आपकी वैवाहिक संपत्ति में व्यवसाय, प्राचीन वस्तुएँ या अचल संपत्ति शामिल हैं, तो सुनिश्चित करें कि आपको अपने भाग में उचित मिल रहा हो।
इस्लाम धर्म में तलाक की अलग प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को जिसके माध्यम से महिला तलाक ले सकती है उसे खुला के नाम से जानते हैं। खुला (Khula)केवल इस्लाम धर्म में तलाक की एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से महिला तलाक ले सकती है। पारंपरिक फ़िक़्ह के आधार पर और कुरआन और हदीस में लिखित ख़ुला महिला को तलाक लेने की अनुमति देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि तलाक और खुला में अंतर होता है।
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मुस्लिम विधि के अनुसार अपनी ही बीवी से पुनः निकाह करने के लिए हलाला एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के हिसाब से अगर आपने अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ बोल कर तीन तलाक दे दिया तो आप उससे तब तक दोबारा निकाह नहीं कर सकते जब तक आपकी बीवी किसी और किसी और से शादी न कर ले और साथ ही वह अपने दूसरे पति के साथ शारीरिक संबंध भी बनाए फिर उसका पति उसे तलाक़ दे तब उस और से पहला पति फिर से निकाह कर सकेगा।
आम तौर पर तलाक़ के बाद पति द्वारा अपनी पत्नी को उचित भरण पोषण दिया जाता है। अगर पति ऐसे नोटिस पर भी भरण-पोषण नहीं देता है तब न्यायालय वसूली वारंट जिसे RC कहा जाता है निकाल देती है। ऐसे वारंट के निकलने के बाद पुलिस पति को गिरफ्तार करके अदालत में पेश करती है। अदालत उस समय भी उससे भरण-पोषण की राशि देने का कहती है। अगर पति के पास देने के लिए रुपए नहीं होते हैं तब अदालत उसे जेल भेज सकती है।
कभी-कभी, जोड़े अलग हो जाते हैं, लेकिन उस बिंदु तक नहीं जहां वे एक दूसरे से नफरत करते हैं। वे सिर्फ यह पहचानते हैं कि वे पूर्व-पति-पत्नी के रूप में बेहतर होंगे और अपनी शादी को सौहार्दपूर्ण ढंग से समाप्त करेंगे। वास्तव में, कुछ तलाक इतने दोस्ताना होते हैं कि पति-पत्नी तलाक की प्रक्रिया के दौरान और उसके बाद भी एक साथ रहना जारी रखते हैं।
सीधे तौर पर कहा जाये तो "हाँ" । लेकिन यह याद रखे की ऐसा तभी होगा जब आप दोष-आधारित तलाक के लिए या "नो-फॉल्ट" विकल्प के तहत दाखिल कर रहे हैं। हालाँकि, यदि इससे एक तलाक़ समझौते के रूप में दाखिल कर रहें हैं तो इसके लिए यह ज़रूरी है कि ऐसा करने से पहले एक वर्ष के लिए अलग एक दुसरे से अलग रहें।
पति और पत्नी की ओर से रजामंदी से तलाक का मामला पेश करने पर कोर्ट में पेश होकर उपस्थित रहना पड़ता है। इसके बाद कानूनी प्रावधानों के चलते 6 महीने बाद की तारीख मिल जाती है। छह महीने बाद एक बार फिर दोनों कोर्ट में आकर जज के सामने पक्ष रखकर कहते है कि वे अब साथ नहीं रहना चाहते हैं तो कोर्ट तलाक की डिक्री दे देती है।
जब कोर्ट में तलाक़ के लिए आवेदन दाखिल किया जाता है तब कोर्ट में पति और पत्नी दोनों की पेशी होती है और कोर्ट दोनों पक्षों का तलाक़ से जुड़ा फैसला पूछता है अब ऐसे में यदि कोई एक पक्ष तलाक़ नहीं चाहता तो कोर्ट फैसले पर पुनः विचार को कहता है तथा अपनी बात रखने का कनूनी मौका प्रदान करता है
पति पत्नी के बीच यदि बन नहीं रही है तो सहमति से तलाक लेने की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। सहमति से तलाक लेने के लिए पहले दोनों ही पक्षों को कोर्ट में एक याचिका दायर करनी होती है। फिर दूसरे चरण में कोर्ट द्वारा दोनों पक्षों के अलग-अलग बयान लिए जाते हैं और दस्तखत की औपचारिकता होती है।
किसी भी मैरिड महिला को अपने पति द्वारा अर्जित की गई संपत्ति पर कोई अधिकार तब तक नहीं होता जब तक उसका पति जीवित रहता है या फिर जबतक उसने तलाक न दे दिया हो। ऐसा दूसरी पत्नी के मामले में भी होता है। आपको बता दें कि पहली पत्नी से तलाक के बाद या फिर पहली पत्नी की मृत्यु के बाद ही दूसरी पत्नी को अपने पति की संपत्ति में पूरा अधिकार मिलता है।
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