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मुस्लिम महिला किन-किन आधारों पर तलाक़ मांग सकती है?
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मुस्लिम महिला विवाह-विच्छेद (तलाक़) अधिनियम 1939 के अन्तर्गत विवाह विच्छेद के लिए कौन वाद प्रस्तुत कर सकता है? इस अधिनियम के अन्तर्गत किन-किन आधारों पर विवाह-विच्छेद (तलाक़) हो सकता है?
Who can sue for dissolution of marriage under the provisions of Muslim Marriage Act, 1939? On what grounds can a marriage be dissolved under this Act?
मुस्लिम-विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत तलाक (Divorce in accordance with Dissolution of Muslim Marriage Act, 1939)
भारत में मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1939 लागू होने से पहले निम्नलिखित आधारों पर ही कोई भी महिला अपने पति से तलाक ले सकती थी
(a) पति के नपुंसक होने पर (On impotency of husband)।
(b) लियन (Lian) (पर पुरुष गमन का झूठा आरोप)
इस अधिनियम के लागू होने के बाद मुस्लिम महिला को इस सम्बन्ध में और अधिक अधिकार मिले जिनके अन्तर्गत निम्नलिखित आधारों पर तलाक के लिए आवेदन कर सकती है-
(1) पति का लापता होना (Absence of husband)
(2) निर्वाह करने में असमर्थता (Failure to maintain)
(3) पति को कारावास (Imprisonment of husb and)
(4) वैवाहिक दायित्वों का पालन करने में असमर्थता (Failure to perform martial obligation)
(5) नपुंसकता (Impotency)
(6) पति का पागल इत्यादि होना (Insanity etc. of husband)
(7) यौवनागमन विकल्प (Option of pubery)
(8) पति की निर्दयता (Cruelty of husband)
(9) शरीयत के अनुसार कोई अन्य आधार (Any other ground according to Shariat)
(1) पति का लापता होना (Absence of husband)—
धारा 2 (1) के अनुसार यदि किसी मुस्लिम स्त्री का पति 4 वर्ष तक लापता रहे और उसके बारे में कोई जानकारी मिलना असम्भव हो तो ऐसी पत्नी को तलाक का आवेदन करने का अधिकार होता है, परन्तु तलाक की डिक्री प्राप्त होने के 6 महीने बाद ही वह प्रभावी होती है और इसी बीच लापता पति वापस लौट आये या कोई अधिकृत व्यक्ति न्यायालय को इस बात से सन्तुष्ट कर दें कि उसका पति वैवाहिक जीवनयापन करने का इच्छुक है तो न्यायालय उस डिक्री को निरस्त (set aside) कर सकता है।
(2) निर्वाह करने की असमर्थता (Failure to maintain)—
धारा 2 (2) के अधीन मुस्लिम धर्म में पत्नी को तलाक़ के लिए प्रार्थना करने का अधिकार है यदि पति दो साल तक पत्नी के भरण-पोषण का प्रबन्ध करने में लापरवाही करे या असफल रहे।
इस सम्बन्ध में यह बात उल्लेखनीय है कि ऐसे तलाक का दावा करने के लिए यह प्रमाणित होना आवश्यक है कि पत्नी के भरण-पोषण का कानूनी तौर पर पति का दायित्व था और उसने उस दायित्व को निभाने में उपेक्षा की या असमर्थ रहा।
ध्यान रहे- यदि पत्नी अपने किसी तर्कयुक्त कारण के बिना अपने पति के साथ रहने से मना करे या दाम्पत्य जीवन के आधारों को पूरा न करे तो वह तलाक के लिए आवेदन नहीं कर सकती है।
इस सम्बन्ध में एक उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह निर्णय दिया कि यदि पति 2 वर्ष तक पत्नी का निर्वाह करने में असफल रहा इसलिए पत्नी ने अपने पति के साथ रहने से मना कर दिया था, अतः पत्नी को तलाक लेने का अधिकार रहता है।
वास्तविकता यह है कि इस प्रसंग के अतिरिक्त पति द्वारा निर्वाह से मना करना तभी सत्य माना जायेगा जब ऐसा जानबूझकर किया गया हो।यदि पति अपनी निर्धनता या अपनी सामर्थ्य के बाहर किसी कारणवश जैसे बेकारी या अस्वस्थता, बेरोजगारी इत्यादि से पत्नी को खर्चा नहीं दे पाता तो भी स्थिति में परिवर्तन नहीं आता।
(3) पति को कारावास (Imprisonment of husband)–
धारा 2 (3) के मुताबिक जब पति को 7 वर्ष या उससे अधिक का कारावास का दण्ड दिया गया हो तो पत्नी को यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह विवाह-विच्छेद (तलाक़) के लिए आवेदन कर सकती है परन्तु ऐसे मामलों में न्यायालय डिक्री उस समय तक नहीं देगा जब तक कि पति के दण्ड के विषय में अन्तिम आदेश (Final Sentence) जारी न हो जाये।
(4) वैवाहिक दायित्वों का पालन करने में असफल होने पर (Failure to perform marital obligation)-
धारा 2 (4) के अनुसार यदि पति बिना किसी उचित कारण के दो वर्ष तक दाम्पत्य के दायित्वों का पालन करने में असफल रहता है तो पत्नी विवाह-विच्छेद (तलाक़) की प्रार्थना कर सकती है।
(5) नपुंसकता (Impotency)–
धारा 2 (5) के अनुसार किसी स्त्री का पति यदि नपुंसक हो तो न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि इस आधार पर विवाह-विच्छेद (तलाक़) की आज्ञप्ति प्रदान करें। ऐसी डिक्री पारित करने से पूर्व पति को यह अवसर दे कि ऐसे आदेश जारी होने के वर्ष के अन्दर न्यायालय को इस बात से सन्तुष्ट कर दे कि उसकी नपुंसकता समाप्त हो चुकी
यदि पति इस प्रकार से न्यायालय को अपनी नपुसंकता समाप्त होने के बारे में सन्तुष्ट कर देता है तो विवाह-विच्छेद (तलाक़) की डिक्री निरस्त हो जायेगी।
इस अधिनियम के लागू होने से पहले स्थिति कुछ अन्य थी। पहले पति की नपुसंकता के सम्बन्ध में स्थिति यही थी कि-
- उसकी विवाह के समय नपुसंक होने की बात प्रमाणित हो जाये।
- पत्नी की निकाह के समय पति की नपुसंकता का पता न चले।
- वाद दायर होते समय नपुसंकता जारी रहे। यदि पत्नी को विवाह के समय पति की नपुसंकता का पता हो या विवाह के बाद एक बार भी पति से शारीरिक सम्बन्ध हो गया हो तो विवाह-विच्छेद नहीं हो सकता।
वर्तमान अधिनियम ने उक्त व्यवस्था में निम्न परिवर्तन किये-
- पति की नपुसंकता के बारे में पत्नी को को नहीं पता था ऐसा प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं है अब।
- विवाह विच्छेद (तलाक़) के आदेश को एक वर्ष तक स्थगित रखने का आदेश सिर्फ पति द्वारा प्रार्थना किये जाने पर ही दिया जा सकता है।
- अपने नपुसंक न होने का प्रमाण देने का भार पति पर ही छोड़ा गया है।
(6) पति के पागल इत्यादि होने पर (Insanity etc. of husband)–
धारा 2 (6) के अनुसार यदि किसी मुस्लिम महिला का पति 2 वर्ष या इससे अधिक समय से-
- पागलपन (Insane)
- घृणित रति या छुआछूत रोग से पीड़ित हो (Venereal disease)
- घोर कुष्ठ रोग ( Virulent form of leprosy ) से पीड़ित हो तो भी वह विवाह-विच्छेद (तलाक़) के लिए न्यायानय में याचिका दायर कर सकती है।
(7) यौवनागमन विकल्प (Option of puberty)-
यदि किसी स्त्री का विवाह उसकी अवयस्कता अर्थात् 15 वर्ष से कम उम्र में उसके
- पिता (Father)
- बाबा (Grand father), या
- संरक्षक (Guardian) द्वारा किया गया हो तो वह बालिग होने पर अर्थात् 18 वर्ष की आयु होने पर
(अ) इस विवाह को अमान्य घोषित कर सकती है कि उसे यह शादी मंज़ूर नहीं, या
(ब) उस पर अपनी स्वीकृति दे देती है।
ध्यान दें-
यौवनागमन का विकल्प तभी दिया जा सकता है जब विवाह तुष्टि (Consummation) न हुआ हो। यदि विवाह के बाद पति-पत्नी में शारीरिक संबध (intercourse) हुआ हो तो ऐसा विकल्प नहीं दिया जा सकेगा।
इस सम्बन्ध में कुछ न्यायालयों ने यह व्याख्या दी कि मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम के उपबन्ध केवल मुस्लिम स्त्री पर ही लागू होते हैं अन्य स्त्रियों पर नहीं।
एक मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि यह कहना कि मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम 1939 में यौवनागमन के विकल्प से सम्बन्धित विवाह को कराने वाले दो पक्षों अर्थात् पिता या पितामह अथवा कोई अन्य पक्ष अभिभावक इत्यादि के कारण विवाह को भंग करने, मान्य करने या तोड़ने में अन्तर को समाप्त कर दिया है, गलत है।
(8) पति की निर्दयता (Curelty of husband)-
पति यदि पत्नी के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है तो पत्नी न्यायालय से विवाह सम्बन्ध का विच्छेद करने की माँग कर सकती है। पति की निर्दयता (cruelty) के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं-
- पति अपनी पत्नी के साथ मारपीट करे या शारीरिक पीड़ा पहुँचाये या क्रूर व्यवहार करे।
- पति बदनाम स्त्री (वेश्या) के साथ रहे।
- पत्नी को दुराचार (अप्राकृतिक सेक्स) के लिए बाध्य करे।
- अपनी पत्नी की सम्पत्ति को बेच दे या पत्नी को उसके कानूनी अधिकार प्रयोग करने से रोके।
- पति पत्नी को उसके धर्म-पालन से रोके।
- यदि पति की एक से अधिक पत्नी हो तो उसके साथ समान व्यवहार न करे।
इतवारीलाल बनाम मुसम्मात असगरी के वाद में-
पति ने अपनी पहली पत्नी के विरुद्ध दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद दायर किया था। इस पत्नी ने पति द्वारा दूसरी पत्नी लाने और निर्दयता के आधार पर माता-पिता के साथ रहने का औचित्य दिखलाया। मुन्सिफ ने इस पत्नी द्वारा निर्दयता का सबूत न दे सकने के कारण पति का वाद डिक्री कर दिया था। पत्नी द्वारा जिला न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत अपील पर किया गया जिसमें निर्णय पलट दिया गया। इस पर पति द्वारा उच्च न्यायालय में अपील की गयी। न्यायमूर्ति एस. एस. धवन ने अपील खारिज करते हुए कहा कि यह दूसरी पत्नी लाने वाले पति को साबित करना चाहिए कि उसके द्वारा दूसरी पत्नी लाना पहली पत्नी का अपमान या निर्दयता नहीं है।
(9) शरीयत के अनुसार अन्य कोई आधार (Any other ground according to Shariat)–
उपर्युक्त आधारों के आलावा मुस्लिम स्त्री को किसी अन्य उस कारण से तलाक देने का अधिकार है जिनका उल्लेख शरीयत में किया गया हो। इस अधिनियम के प्रावधानों के अतिरिक्त शरीयत एक्ट 1937 की धारा 2 के अनुसार तलाक के प्रकारों जैसे, इजा, जिहार, लियन, खुला और मुबारित के अतिरिक्त प्रत्यातित तलाक (delegated divorce) दिया जा सकता है जिसे तलाक-ए-तफवीज (Talaka-e-Tufweez) कहा जाता है।
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तलाक लेने में कितना खर्च आयेगा और यह खर्च कौन देगा? तलाक लेने से पहले यह कानून जान लें!
तलाक में कितना खर्चा आता है? तलाक लेने की प्रक्रिया और इस पर खर्च होने वाली धनराशि क्या होगी इस पर कोई विशेषज्ञ राय दे पाना लगभग असंभव है। इसके वास्तविक खर्च का अनुमान लगाने से पूर्व कुछ ऐसे तथ्य हैं जिसपर चर्चा करना आवश्यक है हालांकि फिर भी इस जटिल सवाल का जवाब देना असंभव है कि तलाक लेने का या देने का वास्तविक खर्च क्या होगा। इस निर्णय से पहले यहां कुछ कारक हैं जो तलाक की कुल लागत को प्रभावित करते हैं पहले इसे जान लें। आपसी सहमति के तहत तलाक लेने में एक विवादास्पद तलाक से कम खर्च होगा। विस्थापित (अलगाव) दंपत्ति का रिश्ता एक प्रमुख कारक होता है। ऐसे रिश्ते में दंपत्ति जितना अधिक मुख्य मुद्दों पर असहमत होता है, उतना अधिक महंगा तलाक होगा, लेकिन बिना बच्चों या वयस्क (बालिग) बच्चों वाले दम्पति का तलाक नाबालिग बच्चों के साथ तलाक से अधिक महंगा होगा। सामुदायिक संपत्ति के विभाजन की असहमति तलाक की लागत में वृद्धि करेगी। निर्वाह (जीवन यापन) धन शामिल तलाक अधिक महंगा है। तलाक की कानूनी लागत का आकलन करना। वकील का शुल्क: एक वकील घंटे के हिसाब से या किए गये कानूनी कार्य के लिए एक मुश्
पति तलाक लेना चाहता और पत्नी नहीं तो क्या किया जाना चाहिए?
क्या सहमति से तलाक़ लिया जा सकता है? पति पत्नी के बीच यदि बन नहीं रही है तो सहमति से तलाक लेने की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। सहमति से तलाक लेने के लिए पहले दोनों ही पक्षों को कोर्ट में एक याचिका दायर करनी होती है। फिर दूसरे चरण में कोर्ट द्वारा दोनों पक्षों के अलग-अलग बयान लिए जाते हैं और दस्तखत की औपचारिकता होती है। तीसरे चरण में कोर्ट दोनों को 6 महीने का वक्त देता है ताकि वह अपने फैसले को लेकर दोबारा सोच सकें। और फिर यदि दोनों ही पक्ष तलाक के फैसले पर कायम रहते हैं तो 6 महीने के बाद कोर्ट द्वारा उनके फैसले के अनुरूप उन्हें तलाक़ की अनुमति दे दी जाती है। क्या केवल लड़का तलाक ले सकता है? आपसी समझौते के आधार पर तलाक लेने की कुछ शर्तें होती हैं। यदि पति और पत्नी शादी के बाद 1 साल या उससे ज्यादा समय से अलग रह रहे हो और दोनों में पारस्परिक रूप से तलाक़ लेने को सहमत हैं। एक दूसरे के साथ रहने पर कोई भी राजी नहीं है या दोनों पक्षों में सुलह की कोई स्थिति नजर नहीं आती है तो ऐसे में सहमति के आधार पर तलाक के लिए आवेदन करने का हक होता है। इसे मैचुअल कंसेंट डायवोर्स कहा जाता है यानी आपसी सहमति से तल
अब चेक बाउंस के मामले में जेल जाना तय है! लेकिन बच भी सकते हैं अगर यह क़ानूनी तरीका अपनाया तो!
एक चेक बाउंस के मामले में क्या करें और क्या न करें? चेक क्या है? एक चेक एक निर्दिष्ट बैंकर पर आहरित एक्सचेंज का बिल है और केवल मांग पर देय है। कानूनी तौर पर, जिस व्यक्ति ने चेक जारी किया है, उसे ‘आहर्ता’ कहा जाता है और जिस व्यक्ति के पक्ष में चेक जारी किया जाता है उसे‘अदाकर्ता’ कहा जाता है। चेक लेते समय यह जांच करें- यह लिखित रूप में होना चाहिए। यह एक बिना शर्त आदेश होना चाहिए। बैंकर को निर्दिष्ट करना है। भुगतान एक निर्दिष्ट व्यक्ति को निर्देशित किया जाना चाहिए। यह मांग पर देय होना चाहिए। यह एक विशिष्ट राशि के लिए होना चाहिए। आहर्ता’ के हस्ताक्षर होना चाहिए। चेक बाउंस / चेक की अस्वीकृति क्या है? एक चेक को अस्वीकृत या बाउंस तब कहा जाता है, जब वह किसी बैंक को भुगतान के लिए प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन किसी कारण या दूसरे अन्य कारणवश भुगतान नहीं किया जाता है। निम्नलिखित में से कुछ कारणों से एक चेक आम तौर पर बाउंस हो जाता है:- हस्ताक्षर मेल मिलान नहीं है चेक में उपरी लेखन किया गया हो तीन महीनों की समाप्ति के बाद चेक प्रस्तुत किया गया था, यानी चेक की समय सीमा समाप्ति के बाद खाता बंद किया ग
तलाक़ के बाद बच्चे पर ज्यादा अधिकार किसका होगा माँ का या पिता का?
तलाक़ के बाद बच्चे पर किसका अधिकार होगा? तलाक़ ले रहे दम्पति के बीच बच्चे की कस्टडी को लेकर अक्सर विवाद उत्पन्न हो जाता है। बच्चे की कस्टडी किसे मिलेगी किसे नहीं यह कई बातों पर निर्भर करता है। मसलन बच्चे की उम्र, लिंग, परिस्थिति आदि। इसके साथ ही यह निर्णय पूरी तरह कोर्ट पर निर्भर है कि बच्चे कि कस्टडी किसको दी जाये। बच्चे का पिता अमीर है इसलिए बच्चा उसी को मिलना चाहिए? माता-पिता की आय व बेहतर शिक्षा की उम्मींद ही कस्टडी देने का मापदंड नहीं हो सकता। चूँकि बच्चा कोई सामान नहीं है जो बिना उचित तर्क के किसी एक को सौंप दिया जाये। माता-पिता की आय तो क्या बच्चे की परवरिश अच्छी ही होगी। कस्टडी की समस्या को मानवीय तरीके से हल किया जाना चाहिएः हाईकोर्ट बिलासपुर में दाखिल एक याचिका की सुनवाई के दौरान छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस एनके चंद्रवंशी की बेंच ने बच्चे की कस्टडी को लेकर पेश किए गए मामले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि "बच्चा कोई सामान नहीं है" बच्चे का कल्याण ही फैसले का आधार होना चाहिए। माता- पिता की इनकम अच्छी है और बच्चे की बेहतर शिक्षा की व्
जानिए, पॉक्सो एक्ट (POCSO) कब लगता है? लड़कियों को परेशान करने पर कौन सी धारा लगती है?
पॉक्सो एक्ट (POCSO) एक केंद्रीय कानून है? इस अधिनियम (कानून) को महिला और बाल विकास मंत्रालय ने साल 2012 पोक्सो एक्ट-2012 के नाम से बनाया था। इस कानून के जरिए नाबालिग बच्चों के प्रति यौन उत्पीड़न, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे यौन अपराध और छेड़छाड़ के मामलों में कार्रवाई की जाती है। इस कानून के अंतर्गत अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा निर्धारित की गई है। पॉक्सो एक्ट (POCSO) कब लगता है? किसी विवाद की विषयवस्तु तथा मुख्य मुद्दे को जानने के लिए पॉक्सो अधिनियम, 2012 का संक्षिप्त अवलोकन करना आवश्यक है। पॉक्सो एक्ट 2012 यौन उत्पीड़न और अश्लीलता (पोर्नोग्राफी) के अपराधों से बच्चों को बचाने के लिए लागू किया गया था। यह एक जेंडर न्यूट्रल लॉ है जो 18 वर्ष से कम उम्र के बालक और बालिकाओं दोनों पर सामना रूप से लागू होता है। पॉक्सो एक्ट (POCSO) की परिभाषा के अनुसार कितने वर्ष से कम आयु का व्यक्ति नाबालिग है? भारतीय कानून में बालिग तथा नाबालिग की परिभाषा प्रस्तुत की गई है इसके अतिरिक्त पॉक्सो अधिनियम की परिभाषा के अनुसार, 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को नाबालिग माना जाता है। यह 18 वर्ष से कम आयु के व्य
बालिग लड़की का नाबालिग लड़के से शादी करने पर अपराध क्यों नहीं है? और क्या नाबालिग लड़की अपनी मर्ज़ी से शादी कर सकती है?
बाल विवाह कुप्रथा क्यों है? बाल विवाह से होने वाली हानियां कौन-कौन सी हैं? भारत जैसे देश में लड़कियों के विवाह के लिए लड़कियों की मर्ज़ी और सहमति की परवाह नहीं की जाती है। लगभग 93% लड़कियों का विवाह उनकी मर्ज़ी के बिना ही किये जाते हैं। कई राज्यों में लड़कियों का विवाह बचपन में ही कर दिया जाता है। जल्दी शादी होने से लड़कियों पर बच्चे पैदा करने का दबाव भी दिया जाने लगता है। कम उम्र में माँ बनने पर लड़कियों को कई तरह से शारीरिक कष्ट झेलने पडतें है। इन्हीं कारणों से भारत में बाल विवाह निषेध किया गया है। बाल विवाह में असली दोषी कौन होता है? बाल विवाह करवाने वाले परिजन, पुरुष-महिला, रिश्तेदार, बालिग पति इत्यादि। बाल विवाह निषेध अधिनियम में बालिग अथवा नाबालिग लड़की को दोषी नहीं माना गया है। बालिग लड़का नाबालिग लड़की से शादी करता है तो क्या होगा? यदि बालिग लड़का जिसकी उम्र 18 वर्ष या इससे अधिक हो और नाबालिग लड़की जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम हो से शादी करता है तो बाल विवाह अधिनयम के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। वास्तव में बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 की धारा 9 में बाल विवाह करने वाले बालिग पुरुष के लिए सजा क
जमानत क्या है और किसी व्यक्ति की जमानत कैसे ले सकते हैं?
हर व्यक्ति के जीवन में कई प्रकार की घटनाएं घटित होती रहती है। जाने अनजाने में कभी कभी व्यक्ति से अपराध भी हो जाता है और कभी-कभी आपसी रंजिश के कारण अन्य व्यक्ति के द्वारा भी किसी व्यक्ति को झूठे मामले में फसाया जाता है। किसी केस में नाम आने से पुलिस द्वारा संबंधित व्यक्ति की गिरफ्तारी कर ली जाती है। ऐसे में बिना कोई अपराध किये ही केवल आपसी रंजिश के कारण संबंधित व्यक्ति को काफी परेशानी उठानी पड़ सकती है। लेकिन ऐसे व्यक्ति के लिए कानून में जमानत लेने का अधिकार प्रदान किया गया है और इस अधिकार का उपयोग करके कोई भी व्यक्ति जमानत प्राप्त कर सकता है लेकिन अपराध की गंभीरता को देखते हुए कई ऐसे अपराध है। जिनके लिए कानून में जमानत की व्यवस्था नहीं की गई है। इसलिए आज आपको इस आर्टिकल के माध्यम से बेल यानि ज़मानत के बारे में पूरी जानकारी देंगे जिससे आपको काफ़ी मदद भी मिल सकती है। इस आर्टिकल के माध्यम से आप जानेंगे की- जमानत क्या है? किसी व्यक्ति की जमानत कैसे ले सकते हैं? ज़मानत लेने पर क्या रिस्क है? किसी अपराधी की जमानत का विरोध कैसे करें? जमानत ना मिलाने की स्थिति में क्या करें? जमानत क्या है? जब क
जानिए दाखिल खारिज़ क्यों ज़रूरी है और नहीं होने पर क्या नुकसान हो सकतें हैं?
ऑनलाइन आवेदन दाखिल-खारिज करते समय आवश्यक कागजात क्या है? यदि आप दाखिल-खारिज के लिए ऑनलाइन आवेदन करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको ज़मीन के सम्बन्ध जानकारियों को ऑनलाइन आवेदन करते समय भरना होगा। जैसे ज़मीन का बैनामा किस तिथि को कराया गया था। किस निबंधन कार्यालय में कराया गया था। किस क्रम संख्या व प्रपत्र पर आपका बैनामा दर्ज है। इसके बाद आप जरूरी जानकारी ऑनलाइन फॉर्म में भरने के बाद सबमिट कर देंगे। लेकिन याद रखें अगर उत्तर प्रदेश में दाखिल-खारिज का आवेदन करना चाहते हैं तो 2012 के बाद कराए गए बैनामों का ही दाखिल खारिज ऑनलाइन संभव है। इसके पहले के दाखिल खारिज कराने के लिए आपको संबंधित तहसील में जाकर आवेदन करना होगा। ज़मीन खरीदने के कितने दिन बाद दाखिल-खारिज करवाना होता है? अमूमन दाखिल खारिज कराने की प्रक्रिया बैनामा के तुरंत बाद कराई जा सकती है। लेकिन दाखिल खारिज होने में लगभग 45 दिन का समय लग जाता है। यह संबंधित कार्यालयों में अलग-अलग हो सकते हैं। क्योंकि दाखिल-खारिज की प्रक्रिया में लेखपाल व राजस्व निरीक्षक के रिपोर्ट दाखिल होने के बाद ही नामांतरण का आदेश किया जाता है। इसलिए इस प्रक्रिया
नया आवेदन करें-
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- ई श्रम कार्ड के लिए आवेदन करें
- किसान क्रेडिट कार्ड के लिए आवेदन करें
- दाखिल ख़ारिज के लिए आवेदन करें
- निःशुल्क क़ानूनी सहायता के लिए संपर्क करें
- प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवेदन करें
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- विवाह प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करें
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