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क्या 'तीन तलाक' मामले में पति के परिवार को आरोपी बनाया जा सकता है?: कोर्ट
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पति के परिजन को नहीं बनाया जा सकता है आरोपी
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि तीन तलाक मामले में पति के रिश्तेदार या परिजन को आरोपी नहीं ठहराया जा सकता। शीर्ष अदालत ने यह कहते हुए याचिकाकर्ता को अग्रिम जमानत दे दी।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि ऐसे मामलों में अपराध करने वालों को अग्रिम जमानत देने पर कोई रोक नहीं है। लेकिन अग्रिम जमानत देने से पहले सक्षम अदालत द्वारा विवाहित मुस्लिम महिला का पक्ष सुना जाना चाहिए। तीन तलाक के मामले में शिकायतकर्ता की सास को भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए एवं 34 के अलावा मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण अधिनियम) के तहत आरोपी बनाया गया था। पीड़िता ने पति के साथ सास पर भी आरोप लगाए।
पति ने अपराध किया है, न कि उसकी मां ने
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि इस मामले में याचिकाकर्ता महिला शिकायतकर्ता की सास है और उसे इस अधिनियम के तहत आरोपी नहीं बनाया जा सकता। पत्नी को तलाक देकर पति ने अपराध किया है न कि उसकी मां ने। लिहाज़ा पति की माँ को आरोपी नहीं बनाया जा सकता
वहीँ दूसरी ओर-
तलाक के सभी रूपों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल
ज्यूडिशियल गुरु । सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है , जिसमें तलाक-ए-हसन और ऐसी ही अन्य सभी तलाक की प्रक्रियाओं को असंवैधानिक घोषित करने का निर्देश देने की मांग की गई है, जो कि मनमाने और तर्कहीन तरीके से की जाती हैं।
याचिकाकर्ता के मुताबिक ये परंपरा इस्लाम के मौलिक सिद्धांत में शामिल नहीं हैं। याचिका में मनमाने तरीके से किए जाने वाले तलाक का विरोध करते हुए कहा गया है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 , 15 , 21, 25 का उल्लंघन है। याचिका में केंद्र सरकार को सभी नागरिकों के लिए तलाक के तटस्थ आधार और तलाक की एक समान प्रक्रिया के लिए दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश देने की भी मांग की गई है।
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याचिकाकर्ता ने इस साल फरवरी में दिल्ली महिला आयोग को एक शिकायत दर्ज कराई थी और अप्रैल में एक प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई थी। हालांकि महिला ने दावा किया कि पुलिस ने उसे बताया कि शरीयत के तहत एकतरफा तलाक-ए-हसन की अनुमति है। याचिका में तलाक एहसन को एकतरफा, मनमाना और समता के अधिकार के खिलाफ वताया गया है।
याचिकाकर्ता के अनुसार यह परंपरा इस्लाम के मौलिक सिद्धांत में शामिल नहीं है। याचिका में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937, जो कि शादी से संबंधित मामलों के लिए है, उसे लेकर एक गलत धारणा बनी हुई है।
इसमें कहा गया है कि एकतरफा एक्स्ट्राज्यूडिशियल तलाक जैसे प्रक्रिया विवाहित मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों के लिए बेहद हानिकारक है और यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 के साथ ही नागरिक और मानवाधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भी उल्लंघन करता है।
याचिका में कहा गया है कि संविधान न तो किसी समुदाय के पर्सनल लॉ को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है और न ही पर्सनल लॉ को विधायिका या न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से छूट देता है। दलील में तर्क दिया गया है कि तलाक-ए-हसन और एकतरफा एक्स्ट्राज्यूडिशियल तलाक के अन्य रूपों की प्रथा न तो मानव अधिकारों और लैंगिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों के अनुरूप है और न ही इस्लामी विश्वास का एक अभिन्न अंग है । याचिका एक मुस्लिम महिला द्वारा दायर की गई है , जिसने एकतरफा एक्सट्रा ज्यूडिशियल तलाक एहसन का शिकार होने का दावा किया है । याचिका अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे के माध्यम से दायर की।
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