हिन्दू विधि (Hindu Marriage) : जानिए हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के अधीन विवाह कब शून्य
(Void marriage) होता है
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत विवाह को संस्कार तथा संविदा दोनों का मिश्रित
रूप दिया गया है। प्राचीन शास्त्रीय विधि के अधीन हिंदू विवाह संस्कार है और उसमे
तलाक जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इस हेतु कुछ प्रावधान आधुनिक हिंदू विवाह अधिनियम
1955 में भी सम्मिलित
किए गए हैं। यदि हिंदू विवाह
को एक संविदा के स्वरूप में देखा जाए तो एक संविदा के भांति ही इस विवाह में शून्य
विवाह (Void marriage) और शून्यकरणीय
विवाह (Void marriage) का समावेश किया
गया है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 शून्य विवाह से संबंधित है। धारा 11 उन विवाहों का उल्लेख
कर रही है जो विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत शून्य होते हैं, अर्थात वह विवाह
प्रारंभ से ही कोई वजूद नहीं रखते हैं तथा उस विवाह के अधीन विवाह के पक्षकार पति-पत्नी नहीं होते। शून्य विवाह वह विवाह है जिसे मौजूद ही नहीं माना जाता है। शून्य
विवाह का अर्थ है कि वह विवाह जिसका कोई अस्तित्व ही न हो अर्थात अस्तित्वहीन
विवाह है। किसी भी वैध विवाह के संपन्न होने के बाद पुरुष और नारी के मध्य विधिक
वैवाहिक संबंध स्थापित होते हैं परंतु यदि विवाह शून्य है तो कोई भी ऐसा संबंध
स्थापित नहीं होता है। उन लोगों के बीच केवल यौन संबंध स्थापित होता है तथा दोनों
को एक दूसरे के प्रति कोई अधिकार तथा दायित्व नहीं होते हैं।
यमुनाबाई बनाम अन्तर राव एआईआर 1981 सुप्रीम कोर्ट 644 के मामले में
उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि
में कोई अस्तित्व ही नहीं माना जा सकता है। ऐसे विवाह को इस के किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से
इंफ़ोर्स नहीं किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 11 यह घोषणा करती है कि इस अधिनियम की धारा 5 के खंडों (1) (4) और (5) में उल्लेखित
शर्तों का उल्लंघन ऐसा विवाह शून्य विवाह कर देता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 हिंदू विवाह के
लिए शर्तों का उल्लेख कर रही है। धारा 5 के अंतर्गत उन शर्तों का उल्लेख किया गया है जिन शर्तों के
मुकम्मल होने पर हिंदू विवाह संपन्न होता है। अधिनियम की धारा 11 शून्य विवाह का
उल्लेख कर रही है, धारा 11 के अनुसार धारा 5 की तीन शर्तों
का उल्लंघन कर दिया जाता है तो विवाह शून्य हो जाता है।
वह तीन शर्ते निम्नलिखित
हैं

- पूर्वर्ती विधिमान्य विवाह के विघटन (पति या पत्नी से अलग हुए बिना ) के पूर्व दूसरा विवाह कर लेना
- विवाह के
पक्षकारों का विवाह के समय एक दूसरे के सपिंड (एक ही कुल या गोत्र का होना) होना
- विवाह के पक्षकारों का आपस में
प्रतिसिद्ध नातेदारी (एक ही परिवार का होना) का होना। या एक ही पिता या माता से जन्म लिए संताने।
हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 11 के अनुसार यह वह तीन शर्ते हैं जो किसी भी विवाह को शून्य
घोषित कर देती है। यदि इन तीनों या फिर इनमे से किसी एक शर्त का उल्लंघन कर दिया
गया है और विवाह संपन्न किया गया है तो ऐसा विवाह प्रारंभ से ही संपन्न नहीं माना
जाएगा। इस विवाह को शून्य घोषित करवाने हेतु विवाह का कोई भी पक्षकार न्यायालय के
समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।
पूर्ववर्ती विधिमान्य विवाह के होते हुए दूसरा
विवाह संपन्न करना यह किसी भी हिंदू विवाह को शून्य घोषित करने हेतु इस अधिनियम की
धारा 11 के अनुसार पहली
शर्त है।
सन 1955 के पूर्व हिंदू
विधि पुरुषों के लिए बहु विवाह को मान्यता प्रदान करती थी लेकिन हिंदू विवाह
अधिनियम के प्रवर्तनीय हो जाने पर यदि प्रथम विवाह अस्तित्वशील है तो विधवा या
विधुर और तलाकशुदा पक्षकारों के अतिरिक्त कोई भी हिंदू दूसरा विवाह या पुनर्विवाह
नहीं कर सकता है।
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 उसमें उल्लेखित शर्तों के उल्लंघन के परिणाम को स्पष्ट
नहीं करती हैं लेकिन धारा 11 इस संदर्भ में
स्पष्ट करती हैं। एक व्यक्ति के पति या पत्नी के जीवनकाल के दौरान दूसरा विवाह
प्रारंभ से ही शून्य होता है। प्रथम विवाह के विद्यमान रहते हुए पुनर्विवाह करना
भारतीय दंड संहिता की धारा 495 और 496 के अधीन दंडनीय अपराध भी होता है।
संतोष कुमार बनाम सुरजीत
सिंह एआईआर 1990 के प्रकरण में
कहा गया है कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया तो वह
विवाह शून्य होगा और यह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध भी होगा। यदि
प्रथम पत्नी पति को दूसरा विवाह करने के लिए सहमति देती है तो भी द्वित्तीय विवाह
वैध नहीं होगा क्योंकि प्रथम विवाह की विधिमान्यता में द्वितीय विवाह किया गया है
और किसी विवाह के विद्यमान रहते हुए दूसरा विवाह किया जाना दंडनीय अपराध भी है और
हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार शून्य
है।
अजय चंद्राकर बनाम श्रीमती उषा बाई 2000 (2) एम पी एल जे 112 में यह निर्णीत किया गया है कि धारा 11 में प्रावधान है
कि धारा 5 के खंड 1 के उल्लंघन में
किया गया विवाह शून्य होगा तथा विवाह के व्यथित पक्षकार द्वारा याचिका प्रस्तुत
किए जाने पर अकृता की डिक्री दी जा सकती है।
श्यामलाल बनाम सुगना देवी 1998 जेएलजे 345 के मामले में यह
कहा गया है कि अपीलार्थी के साथ जब मृतक सत्यनारायण का विवाह हुआ था तो मृतक की
पूर्व पत्नी उत्तरवादी क्रम संख्या 1 जीवित थी। इसलिए विवाह धारा 5 (1) के उल्लंघन में होने से शून्य हैं। ऐसा विवाह
प्रारंभ से शून्य होता है। इसे शून्य घोषित करने की आवश्यकता नहीं है। विवाह के
पक्षकारों का एक दूसरे के प्रतिषिद्ध नातेदारी के भीतर होना प्राचीन हिंदू
विधि के साथ ही आधुनिक हिंदू विधि के अधीन हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में हिंदू विवाह
को एक संस्कार बनाए रखने के सारे प्रयास किए गए हैं।
अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत
हिंदू विवाह के संपन्न किए जाने के संदर्भ में कुछ शर्तों का उल्लेख किया गया है
यदि इन शर्तों का उल्लंघन किया जाता है तो अधिनियम की धारा 11 के अनुसार वह
विवाह शून्य होगा। प्रतिषिद्ध नातेदारी का हिंदू विवाह के संदर्भ में कड़ाई से
पालन किया गया है तथा यह प्रयास किए गए हैं कि कोई भी हिंदू विवाह प्रतिषिद्ध
नातेदारी के भीतर संपन्न नहीं हो।
अधिनियम की धारा 11 शून्य विवाह के
संदर्भ में उल्लेख कर रही है। इस धारा के अनुसार तीन व प्रमुख शर्ते हैं जिन का
उल्लंघन करने पर कोई भी हिंदू विवाह प्रारंभ से ही शून्य होता है। उन शर्तो में
दूसरी शर्त विवाह के पक्षकारों का आपस में प्रतिषिद्ध नातेदारी का होना है। दोनों
में से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि और प्रथा उन दोनों के बीच विवाह की
अनुमति नहीं देती है तो ऐसा विवाह शून्य होगा अर्थात यदि किसी जाति में प्रतिषिद्ध
नातेदारी में विवाह रूढ़ि और प्रथा के अधीन हो सकता है तो फिर विवाह इस धारा के
अधीन शून्य नहीं होगा।
मीनाक्षी सुंदरम बनाम नम्बलवार एआईआर 1970 मद्रास 402 के प्रकरण में
यह कहा गया है की किसी भी हिंदू विवाह को प्रतिषिद्ध नातेदारियों के आधार पर शून्य
घोषित किया जा सकता है, यदि विवाह के
पक्षकारों में से कोई पक्षकार अपने समाज के भीतर चलने वाली उन रूढ़ि और प्रथाओं को
सिद्ध नहीं कर पाता है जिनके अधीन प्रतिषिद्ध नातेदारियों के भीतर विवाह किए जाने
की मान्यता प्राप्त हो।
विवाह के पक्षकारों का आपस में सपिंड होना संस्कार माने गए
हिंदू विवाह के अधीन विवाह के पक्षकार यदि आपस में सपिंड नहीं है तो ही हिंदू
विवाह संपन्न होता है। हिंदू विवाह के अधीन विवाह के पक्षकारों में सपिंड नातेदारी
का विशेष ध्यान रखा जाता है तथा यह ध्यान देने का प्रयास किया गया है कि विवाह के
पक्षकार एक दूसरे से सपिंड नहीं हो। वर्तमान अधिनियम के अंतर्गत पिता की ओर से 5 पीढ़ियां तथा
माता की ओर से तीन पीढ़ियां सपिंड नातेदारी के भीतर होती है। यदि कोई विवाह इन
नातेदारी के भीतर किया गया है तो ऐसा विवाह हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के उपखंड 3 के अधीन शून्य
होगा तथा प्रारंभ से ही इस विवाह को कोई विधिमान्यता प्राप्त नहीं होगी।
महिंद्र
कौर बनाम मेजर सिंह एआईआर 1972 पंजाब व हरियाणा
उच्च न्यायालय 186 के प्रकरण में
कहा गया है कि धारा 5 की इन शर्तों के
अलावा इस धारा की किसी अन्य शर्त के उल्लंघन होने पर विवाह शून्य नहीं होता है
इसलिए धारा 11 के अधीन विवाह
को शून्य होने से बचाने हेतु सपिंड नातेदारी का विशेष ध्यान रखना होता है। यह
प्रावधान हिंदू विवाह के संस्कार के स्वरूप को बचाए रखने हेतु आधुनिक हिंदू विवाह
अधिनियम 1955 के अधीन किया
गया है।
कलावंती बनाम देवी राम एआईआर 1961 के प्रकरण में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में विनिश्चित
किया गया है कि धारा 5(3)
की शर्तों का
उल्लंघन होने पर विवाह शून्य नहीं हो जाता है इसके विपरीत श्रीमती कृष्णा देवी
बनाम श्रीमती गुलशन देवी एआईआर 1962 पंजाब-हरियाणा 305 में इस निर्णय को उलट दिया गया और माना गया की धारा 5 वर्णित निम्न
तीन में किसी भी शर्त के पूरी ना होने पर विवाह प्रारंभ से ही शून्य है।
करणवीर
बनाम मीनाक्षी कुमारी 1990 हिंदू ला 49 हरियाणा पंजाब
के प्रकरण में विनिश्चित किया गया है कि विवाह को इस आधार पर शून्य घोषित नहीं
किया जा सकता की पत्नी हरिजन जाति की है यदि पति हरिजन जाति का है तो भी विवाह
शून्य नहीं होगा। विवाह की शून्यता इस आधार पर भी घोषित नहीं की जा सकती के
पक्षकार साथ साथ नहीं रह सकते। शून्य विवाह घोषित करने हेतु आवेदन कौन कर सकता है
धारा 11 का अध्ययन करने
के बाद प्रश्न यह उठता है कि किसी भी विवाह को न्यायालय से शून्य घोषित करवाने
हेतु याचिका कौन प्रस्तुत कर सकता है? यह उल्लेखनीय है कि केवल विवाह के वास्तविक पक्षकार ही
विवाह को अकृत व शून्य घोषित कराने का आवेदन उपरोक्त वर्णित आधारों पर कर सकते
हैं। तृतीय पक्षकार उदाहरण के लिए पहली पत्नी ऐसा नहीं कर सकती है। धारा 11 में प्रयुक्त 'उसके किसी
पक्षकार' शब्दों का
अभिप्राय केवल दो व्यक्तियों से हो सकता है अर्थात विवाह के वास्तविक पक्षकार।
इसलिए पहली पत्नी धारा 11 के अंतर्गत यह
आवेदन नहीं कर सकती कि दूसरी पत्नी के विवाह को धारा 11 के अंदर शून्य
घोषित किया जाए।
लक्ष्मण अम्माल बनाम रामास्वामी नयकर एआईआर 1960 मद्रास 61 के मामले में
स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी हिंदू विवाह को शून्य घोषित करवाने हेतु न्यायालय के
समक्ष याचिका केवल विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई एक पक्षकार ही कर सकता है।
पहली पत्नी द्वारा इस प्रकार की याचिका प्रस्तुत नहीं कि जाएगी। पहली पत्नी के पास
भारतीय दंड संहिता की धारा 496 के अधीन दाण्डिक उपचार उपलब्ध है। 1976 के विवाह विधि
संशोधन अधिनियम के बाद धारा 11 के अंतर्गत याचिका पति या पत्नी के द्वारा ही प्रस्तुत की
जाती है। जिसके विरुद्ध अनुतोष मांगा गया है पति या पत्नी होने चाहिए। पति और
पत्नी से अलग किसी व्यक्ति द्वारा ऐसी याचिका प्रस्तुत नहीं की जाएगी। यदि किसी एक
की मृत्यु हो जाए तो याचिका पोषणीय नहीं है। यदि याचिका के लंबित अवस्था में पति
या पत्नी की मृत्यु हो जाए तो याचिका नहीं चल सकेगी। पति की मृत्यु पर पुत्र को उसके
स्थान पर पक्षकार बनाकर याचिका नहीं चल सकती है।
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