अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) एवं जनजाति (Scheduled Tribe) अत्याचार और निवारण:
"अत्याचार शब्द का मतलब उन अपराधों से है जो गैर
अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों (सर्वण जाति) द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के सदस्यों के विरूद्ध किये
जाते हैं।"
अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) एवं जनजाति (Scheduled Tribe) अत्याचार निवारण अधिनियम:
वर्षों से भारत में एक वर्ग जिसे संविधान के माध्यम से
अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) एवं जनजाति (Scheduled Tribe) के रूप में अनुसूचित किया गया, शोषण, अत्याचार, अपमान, साधनहीनता, भूख, गरीबी व यातनाओं
का शिकार होता रहा है। अनेक समाज सुधारकों ने समय-समय पर इस वर्ग के उत्थान के लिए
प्रयास किए हैं, जिनमें डॉ-
भीमराव अम्बेडकर तथा महात्मा ज्योतिबा फूले का योगदान उल्लेखनीय है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366, 341 व 342 में अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) एवं जनजाति (Scheduled Tribe) शब्द को परिभाषित किया गया
है और उसकी व्याख्या की गई है जिसके अनुसार “राष्ट्रपति किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में और
जहाँ वह राज्य है, वहाँ उसके
राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या
जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या
जनजातियों के भागों या उनके यूथों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस
संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में
अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समझा जाएगा।”
इस वर्ग के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सर्वप्रथम
संविधान के अनुच्छेद 17 के माध्यम से
अस्पृश्यता (untouchability) का उन्मुलन किया गया था। सन् 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम पारित किया गया और कालान्तर
में इसे सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, का 1955 नाम दिया गया।
1989 में इस वर्ग को
अत्याचार से मुक्त कराने के उद्देश्य से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति
(अत्याचार निवारण) अधिनियम,
1989 पारित किया गया, जो 30 जनवरी, 1990 से लागू हुआ। इस
अधिनियम में 5 अध्याय व 23 धाराएँ हैं।
अधिनियम में अत्याचार को रोकने हेतु कठोर प्रावधान किए गए हैं। अधिनियम की धारा 3 में दण्डनीय
अपराधों की विस्तृत सूची है तथा इन अपराधों के संबंध में वही व्यक्ति दोषी हो सकता
है, जो अनुसूचित जाति
या जनजाति वर्ग का सदस्य नहीं है।
इस अधिनियम में लोक सेवक ( Public Servant ) द्वारा अपने कार्य की उपेक्षा करना, किसी अभियुक्त की
किसी प्रकार से सहायता करना तथा अपराध करने के लिए उकसाने को भी गंभीर अपराध माना
गया है।
अधिनियम की धारा 14 विशेष न्यायालय के गठन का प्रावधान करती है, जिसके माध्यम से
त्वरित सुनवाई और अपराधी को शीघ्रातिशीघ्र दण्डित किए जाने को सुगम बनाया गया है।
धारा 18 प्रावधान करती है कि इस अधिनिमय के अन्तर्गत किए जाने वाले
अपराध के संबंध में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 लागू नहीं होगी अर्थात् अग्रिम जमानत को
प्रतिषिद्ध किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक हालिया निर्णय में इस धारा को
अप्रभावी कर दिया था जिसे केंद्र की सरकार ने संशोधन अधिनियम 2018 के द्वारा धारा 18 क जोड़कर पुनः
प्रभावी बना दिया है।
निष्कर्ष यह है कि अधिनियम के प्रावधान अत्यंत कठोर है, जिनका उद्देश्य
अत्याचार के अपराधों को कम करना है, लेकिन विधि विशेषज्ञों की राय में इस अधिनियम में अग्रिम
जमानत, राजीनामा और
परिवीक्षा के प्रावधानों को शामिल नहीं करना असंतुलन की स्थिति को जन्म देता है।
यदि इस क़ानून का सदुपयोग किया जाए तो समाज में समानता के
स्वर्णिम अध्याय के जुड़ने व अत्याचार मुक्त समाज की परिकल्पना के साकार होने की
आशा की जा सकती है।
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