भारतीय दण्ड संहिता में मृत्युदण्ड
व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया के फलस्वरूप किसी जघन्य
अपराध को करने के लिए प्राण का दण्ड देना मृत्युदण्ड कहलाता है।
जघन्य अपराधियों को फाँसी की सजा दिया जाना मृत्युदण्ड का
एक स्वरूप है और निरोधात्मक दण्ड के रूप में मृत्युदण्ड सबसे कठोरतम दण्ड माना गया
है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप समाज से अपराधी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।
प्रायः सभी देशों में मृत्युदण्ड सदियों से प्रचलित है। भारत में भी आदिकाल से
मृत्युदण्ड विभिन्न रूपों में प्रचलित था। अवांछित समाज विरोधी तत्वों को समूल
नष्ट करने का यह एक प्रभावकारी उपाय माना जाता रहा है।
मृत्युदण्ड का अर्थ-
फेयर चाइल्ड के अनुसार- “किसी अपराध के लिये अपराधी को मृत्यु की सजा
दिया जाना मृत्यु दण्ड या प्राणदण्ड कहलाता है।”
सी-एम- अब्राहम के अनुसार- “सामाजिक नीति के अनुरूप अत्यधिक गंभीर अपराध के
मामलों में दोषी व्यक्ति को मौत के घाट उतार देना मृत्युदण्ड कहलाता है।”
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के अंतर्गत निम्नलिखित अपराधों के लिये मृत्युदण्ड
का प्रावधान है-
- भारत सरकार के
विरुद्ध युद्ध करना। (धारा 121)
- विद्रोह के लिये
दुष्प्रेरित करना, जिसके
परिणामस्वरूप विद्रोह हो जाये। (धारा 132)
- मिथ्या साक्ष्य
देना या गढ़ना, जिसके कारण
निर्दोष व्यक्ति को मृत्युदण्ड से दण्डित किया जाये। (धारा 194)
- हत्या। (धारा 302)
- किसी अवयस्क या
पागल या उन्मत व्यक्ति को आत्महत्या करनेे के लिये उत्प्रेरित करना। (धारा 305)
- ऐेसे व्यक्ति की
जिसे आजीवन कारावास की सजा हुई हो, हत्या का प्रयास करना और यदि ऐसे प्रयास का परिणाम घोर
उपहति हो। (धारा 303)
- हत्या सहित डकैती
करना। (धारा 396)
भारत में मृत्युदण्ड के विषय में बच्चन सिंह बनाम पंजाब
राज्य (1980) का मामला एक मील
का पत्थर साबित हुआ है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने मृत्युदण्ड को वैध बताते
हुए कहा कि यह फाँसी दिए जाने वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूलभूत
अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।
पाण्डुरंग बनाम स्टेट ऑफ हैदराबाद के मामले में
उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि मृत्युदण्ड केवल अनिवार्य स्थिति में
या विरले से विरले मामले में ही दिया जाना चाहिये।
1978 में स्टॉकहोम
में सम्पन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन में जो संहिता जारी की गई है, उसमें मृत्युदण्ड
को अवांछनीय घोषित किया गया है। अवांछित घोषित करने का कारण यह मान्यता थी कि
मृत्युदण्ड में अन्याय की सम्भावना रहती है। इसलिये हत्या के मामले में सामान्यतः
आजीवन कारावास की सजा दी जानी चाहिए और अन्य परिस्थितियों में मृत्युदण्ड की सजा
वहाँ दी जानी चाहिए, जहाँ अपराधी का
अस्तित्व समाज के लिए खतरनाक हो और जहाँ अपराध जघन्य सिद्ध हो जाए।
मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिये या नहीं, इस मामले में सभी
की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण
मामले में निर्णय देते हुए यह धारित किया कि केवल विधायिका ही मृत्युदण्ड को
समाप्त कर सकती है और जब तक मृत्युदण्ड सांविधिक पुस्तकों में विद्यमान है, यह दिया जाता
रहेगा।
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