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क्या कोई महिला घरेलू हिंसा करने की दोषी हो सकती है? क्या महिला के खिलाफ मुकदमा दायर किया जा सक्ता है?
कानून कैसे काम करता है इस बात पर समय-समय पर विचार होते रहते हैं। ऐसा ही एक वाक्या दिल्ली में सामने आया जहाँ पति ने पत्नी के खिलाफ लगाया घरेलू हिंसा का आरोप लगाया और मुकदमा दायर किया। मामला जब कोर्ट में पहुंचा तब और भी दिलचस्प बात देखने मिली। मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस जसमीत सिंह हंसने लगे और बड़ी हैरानी से पूछा "ये क्या है?" क्या ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीश ने अपना दिमाग नहीं लगाया? घरेलू हिंसा रोकथाम अधिनियम 2005 के तहत किसी महिला को आरोपी बनाया जा सकता है क्या?
मामला कुछ इस तरह है कि जस्टिस जसमीत सिंह दिल्ली की एक महिला की अपील पर सुनवाई कर रहे थे। महिला ने निचली अदालत कड़कड़डूमा कोर्ट के एक फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। इस मामलें में निचली अदालत ने उसे घरेलू हिंसा के आरोप में समन जारी किया गया था।
जहाँ इस प्रश्न पर चर्चा हुई कि-
वर्ष 2008 में सान्या नाम की महिला की शादी राहुल नाम के लड़के से हुई थी। शादी के बाद से सान्या और राहुल के बीच अनबन होने लगी और यह पिछले 14 साल से होती चली आ रही थी। अनबन धीरे-धीरे मारपीट में बदल गई। स्थति जब हद से ज्यादा बिगड़ी तब 24 अगस्त 2022 को पति राहुल ने पत्नी से तलाक के लिए कोर्ट में अर्जी दायर की। साथ ही राहुल ने घरेलू हिंसा रोकथाम अधिनियम की धारा 18, धारा 20, धारा 21 के तहत सान्या के खिलाफ घरेलू हिंसा करने का केस भी दर्ज करवाया था। राहुल ने अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि उसकी पत्नी "दबंग प्रकृति" की है। उसके 52 व्यक्तियों के साथ एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर (अवैध सम्बन्ध) हैं। इन कथित प्रेमियों में से 2 प्रेमियों के नाम भी इस केस में भी शामिल किये गये। राहुल ने कोर्ट से राहत की मांग करते हुए घरेलू हिंसा कानून 2005 की धारा 22 के तहत पत्नी से 36 लाख मुआवजे दिलाने की मांग कोर्ट से की।
पत्नी सान्या ने भी 19 अक्टूबर 2022 को पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। उसने आरोप लगाया कि उसके पति और उसके परिवार के सदस्यों ने मौखिक, शारीरिक और भावनात्मक तौर पर उसका शोषण किया है। साथ ही सान्या ने मुआवजे के तौर पर 2 करोड़ रुपए की मांग की।
इस मामले में जब दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट ने सान्या के खिलाफ समन जारी कर दिया। जिसे उसने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी। मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि घरेलू हिंसा कानून में महिला को आरोपी नहीं बनाया जा सकता। इस आधार को ध्यान में रखते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई पर रोक लगा दी है।
केंद्र सरकार ने वर्ष 2005 में महिलाओं के प्रति होने वाली घरेलू हिंसा को रोकने के लिए एक कानून बनाया था। इसे घरेलू हिंसा कानून 2005 या घरेलू हिंसा रोकथाम महिला संरक्षण अधिनियम 2005 कहते हैं। इस कानून के मुताबिक घरेलू हिंसा का मतलब सिर्फ पति का पत्नी को पीटना और जलील करना नहीं है, बल्कि किसी महिला को पति या उसके परिवार के सदस्यों के द्वारा शारीरिक, मानसिक, यौन या फिर मौद्रिक (Financial) यातना देना भी घरेलू हिंसा के अंतर्गत आता है। घरेलु हिंसा का दोषी पति, सम्बन्धी पुरुष, दादा, पिता, चाचा, ताऊ, भाई, या फिर बेटा हो सकता है।
घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम 2005 के तहत मां, बहन, बेटी, पत्नी या फिर लिव-इन-रिलेशनशिप (Living Partner) में रह रही महिला आदि में से कोई भी घरेलू हिंसा की शिकार होने पर Magistrate के पास अपनी शिकायत दर्ज़ करवा सकती है। घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम 2005 में मुख्य कारण यह है कि इस कानून की धारा 2(A) में केवल महिलाओं को पीड़ित माना गया है। इसलिए नियमानुसार पत्नी या किसी महिला को घरेलू हिंसा करने के लिए आरोपी नहीं बनाई जा सकता।
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घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम 2005 का मुख्य उदेश्य हर जनपद में ‘सुरक्षित घर’ बनाने और महिलाओं के लिए संरक्षण अधिकारी नियुक्त करना है। इस कानून में स्पष्ट कहा गया है कि पीड़िता महिला को किसी भी हाल में परिवार वाले उसे घर से नहीं निकाल सकते। इस कानून की दिलचस्प बात यह है कि इसमें एक बच्चा भी अपने पिता के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करवा सकता है। अगर बच्चे को यह लगता है कि उसका पिता उसकी मां के साथ मारपीट कर रहा है या प्रताड़ित कर रहा है तो उसके बयान के आधार पर शिकायत दर्ज की जा सकती है।
लखनऊ हाई कोर्ट के वकील आशुतोष कुमार ने बताया कि अगर पत्नी अपने पति के साथ अमानवीय व्यवहार करती है या घरेलू हिंसा जैसे मार पीट, गाली-गलौच आदि करती हैं तो पति के पास दो रास्ते हैं जिससे वह पत्नी के विरुद्ध मुकदमा दायर कर सकता है
ऐसे में पति भारतीय दण्ड सहिंता (IPC) की अलग-अलग धाराओं में पत्नी के खिलाफ केस दर्ज करवा सकता है।
जैसे-
अधिवक्ता आशुतोष कुमार का कहना है कि जब कभी कोई कानून समाज के एक वर्ग की सुरक्षा के लिए बनाया जाता है तो दूसरे वर्ग को लगने लगता है कि ये कानून उसके खिलाफ है। ऐसा इस मामलें में भी है हालांकि ये बात पूरी तरह सही नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि घरेलू हिंसा कानून 2005 उदेश्य महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करना है न कि पुरुषों के खिलाफ भेदभाव या आक्रामकता को बढ़ाने के लिए है।
उदाहरण के तौर पर जैसे- समाज में SC/ST से होने वाले भेदभाव को कम करने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम बनाया गया है। उसी तरह से महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए घरेलू हिंसा रोकथाम अधिनियम 2005 है। कुछ कानून विशेषज्ञों का मानना है कि यह कानून सिर्फ महिलाओं के लिए बनाया गया है। इस कानून के तहत कानूनी सुरक्षा केवल महिलाओं के लिए सीमित रखी गई है।
इसके अलावा भारतीय दण्ड सहिंता (IPC) की धारा 498A भी केवल महिलाओं को ही पीड़ित मानती है और महिलाओं के हित की बात करती है, जबकि वास्तव में आरोपी महिला या पुरुष कोई भी हो सकता है।
इस कानून को कई बार अलग-अलग कोर्ट में पुरुष विरोधी बताकर कोर्ट में चुनौती दी गई है लेकिन इस तरह के तर्क में कुछ खास दम नहीं था इसलिए मामला जस का तस आज भी बना है।
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