अंतर धार्मिक विवाह करने के लिए किसकी अनुमति ज़रूरी है? क्या कोर्ट मैरिज रजिस्ट्रार विवाह पंजीकरण करने से इनकार कर सकता है? जानिए प्राविधान

हिंदू विधि के अनुसार लोन (ऋण) का भुगतान करने के लिए जो दायित्व है वह पुत्र को क्यों वहन करना होगा -
पढ़िए यह रिपोर्ट-
सामान्यता लोन (ऋण ) से तात्पर्य उस निर्धारित अथवा निश्चित धनराशि से होता है जिसकी अदायगी के लिए कोई व्यक्ति उत्तरदाई होता है। इसके अंतर्गत किसी से उधार लिया गया धन, कोई धनराशि अदा करने की डिक्री अथवा विधि द्वारा मान्य अन्य किसी प्रकार की डिक्री आती है। दीवानी प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 52 और 53 के अंतर्गत पता अथवा पितामह के ऋणों के हेतु पत्र उत्तराधिकारी के रूप में मृत द्वारा छोड़ी गई परिसंपत्ति तक उत्तरदाई होता है। परंतु हिंदू विधि के अंतर्गत पुत्रों तथा पौत्रों पर पिता अथवा पितामह द्वारा लिए गए ऋणों को अदा करने का धार्मिक तथा नैतिक दायित्व भी होता है। चूँकि पिता या कर्ता ऋण परिवार की आवश्यकता तथा संपत्ति के प्रलाभ के लिए लेता है। अतः परिवार का प्रत्येक सदस्य इस ऋण को चुकाने के लिए बाध्य है क्योंकि वह दाय में संपत्ति प्राप्त करता है। संयुक्त परिवार में यदि पिता ने ऋण अपने स्वयं के लाभ के लिए लिया है तो पुत्रों का दायित्व है कि वह ऋण का भुगतान करें। परंतु ऐसा ऋण अवैध तथा अनैतिक कार्यों के लिए नहीं लिया गया होना चाहिए।
हिंदू विधि के अंतर्गत कर्ज के भुगतान के पीछे जो भावना कार्य करती है वह यह है कि ऋण ग्रस्त व्यक्ति भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। ऋषियों ने बार-बार कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ऋण का भुगतान करना चाहिए। बृहस्पति के अनुसार ऋणी रह कर मरने बाला साहूकार के यहां दास, चाकर स्त्री या चौपाये की योनि में जन्म लेता है। नारद ने भी कहा है कि ऋण को अदा न करने से ऋणी के पुण्य उसके ऋण दाता को प्राप्त हो जाते हैं। अत: ऋण छोड़कर मरने वाले व्यक्ति के पुत्रों को उसका ऋण अवश्य चुकाना चाहिए। इस प्रकार यह दायित्व तीन प्रकार से संपन्न हो सकता है।
मेन के अनुसार किसी हिंदू द्वारा लिया गया ऋण के भुगतान के दायित्व के तीन स्रोत हैं।
पिता, पितामह द्वारा लिए गए ऋणों का भुगतान करना पुत्र- प्रपौत्र का धार्मिक दायित्व माना गया है। दायित्व प्रपौत्रों पर भी होता है क्योंकि यह तीनों ही जन्म से आपस में सहदायिक होते हैं। नारद ने बड़े विस्तार से कहा है कि पिता पुत्रों को इसी स्वार्थ के कारण चाहते हैं कि पुत्र जिस प्रकार से संभव होगा, ऋण का भुगतान करेंगे। ऋषियों और पितरों के उत्तम ऋणों से तथा मनुष्य के अधम ऋणों से मुक्त कराएगा, अतः उसे यह उचित है कि वह स्वार्थ का परित्याग करें, अपने पिता को ऋण से मुक्त कराएं ताकि पिता नरकगामी न हो। "स्मृतिकारों ने लिखा है कि ऋण का भुगतान न करना भयंकर पाप है। जिसके परिणाम मनुष्य को परलोक में भुगतने पड़ते हैं। अत: परलोक में अपने पिता की आत्मा को कष्ट से बचाने के लिए पुत्र का यह कर्तव्य है कि वह पिता द्वारा लिए गए ऋणों का चुका दें।" अत: पुत्र तथा प्रपौत्र का यह धार्मिक कर्तव्य है कि वह अपने पिता तथा पितामह द्वारा लिए गए ऋणों का भुगतान करें यदि ऐसे ऋण अवैध तथा अनैतिक कार्य हेतु नहीं लिए गए हैं।
पिता तथा पितामह द्वारा लिए गए ऋणों का भुगतान करने का पुत्र तथा प्रपौत्र का नैतिक दायित्व भी है। नैतिक दायित्व इसलिए है कि वह पिता से संपत्ति पर भारित सभी दायित्वों का वहन करने का भी हकदार होता है। पिता द्वारा लिया गया ऋण संपत्ति पर भारित होता है अतः पुत्र को ऐसे ऋण को चुकाना उसका नैतिक दायित्व है।
धार्मिक तथा नैतिक दायित्व के अतिरिक्त पुत्र का ऋण के भुगतान करने का एक और भी दायित्व होता है वह है विधिक दायित्व। विधिक दायित्व इसलिए कि पुत्र, पिता तथा पितामह के साथ संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहभागीदार होता है। अतः जो ऋण पिता द्वारा परिवार की विधिक आवश्यकता या संपत्ति के प्रलाभ के लिए लिए जाते हैं। वे परिवार की संपत्ति पर भारित होते हैं। जिन्हें भुगतान करने का दायित्व उस व्यक्ति का होता है जो दाय में संपत्ति प्राप्त करता है। ऋणदाता न्यायालय में उचित कार्यवाही करके पुत्रों को पक्षकार न बनाया हो।" परिवार की पूर्व संपत्ति पर पिता के ऋण का भार होता है, यदि वह परिवार के लाभ के लिए लिया गया हो तथा परिवार द्वारा ऐसे ऋणों पर उचित ब्याज भी दिया जाना चाहिए।
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