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भारत में इंसानों पर नहीं होगा कोरोना वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल | भारत में क्लीनिकल ट्रायल के कानून विकसित देशों से जुदा

आज पूरा विश्व कोरोना वैक्सीन की खोज में  लगा हुआ है लेकिन अब तक किसी भी देश में इसका पूर्णतयः सफल परीक्षण नहीं हो सका है। वहीं कई संपन्न देश की नज़रें भारत पर टिकी हैं।

इंसानो दवा परीक्षण के नियमों के चलते कई संपन्न देशों की तुलना में भारत में परीक्षण आसान और सस्ता है। लेकिन परिजनों की अनुमति के बिना किसी भी व्यक्ति पर क्लीनिकल ट्रायल नहीं हो सकता। पूर्व में हुए ऐसी घटनाओं के चलते सुप्रीम कोर्ट भी इस पर प्रतिबंध लगा चुका है-

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क्लीनिकल ट्रायल:-

स्वास्थ्य संबंधी किसी विशिष्ट समस्या का इलाज तलाशने के लिए मानव पर किए जाने वाले शोध अध्ययन को चिकित्सकीय परीक्षण (क्लिनिकल ट्रायल) कहते हैं। इस प्रक्रिया में लोग खुद से अपने ऊपर शोध करवाने कराने के लिए तैयार होते हैं। सावधानी पूर्वक किए गए चिकित्सकीय परीक्षण लोगों का इलाज करने और उनके स्वास्थ्य में सुधार करने का सबसे सुरक्षित और तेज तरीका है। हालांकि, गैर कानूनी रूप से इंसानों पर किए जाने वाले परीक्षणों में जान का खतरा भी रहता है।

प्रकार:-


क्लीनिकल ट्रायल मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं। 

  • बचाव के विकल्प के रूप में। 
  • मौजूदा इलाज का नया तरीका।  
  • नई स्क्रीनिंग और डाइग्नोस्टिक।  
  • गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति की दशा सुधारने के विकल्प के रूप में।  

कायदा कानून:-


भारत में चिकित्स्कीय परीक्षण के नियंत्रण का प्रावधान ड्रग एंड कॉस्मेटिक रूल्स एंड गुड क्लिनिकल प्रैक्टिस की Y (वाई) अनुसूची में किया गया है। किसी भी परीक्षण को शुरू करने से पहले नियम 21 (बी) के तहत ड्रग्स कंट्रोलर ऑफ इंडिया (DCI) से अनुमति लेनी होती है। इसके साथ ही संबंधित एथिक्स कमेटी की अनुमति भी जरूरी होती है।

चिकित्सीय परीक्षण संबंधी नियमों को और मजबूत करने के लिए ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स में संशोधन किए गए।

18 नवंबर, 2011 को लागू किए गए संशोधनों के तहत जोड़े गए। अब इसे और कड़े कानून के साथ लागू किया गया है।

  • परीक्षण के समय क्षति या मौत के मुआवजे का प्रावधान।  
  • परीक्षण के दौरान क्षति पहुंचने या मारे जाने वाले व्यक्ति को सही इलाज या मुआवजा मिलना सुनिश्चित करने के लिए एथिक्स कमेटी, प्रायोजक और जांचकर्ताओं की जिम्मेदारियों में वृद्धि। 
  • परीक्षण किए जाने वाले व्यक्ति की सहमति हासिल करने वाले प्रपत्र में उसकी सामाजिक आर्थिक हैसियत बताने वाले अन्य प्रावधान जोड़े गए हैं। 

परीक्षण से परेशानी:-

किसी भी दवा को बाजार में उतारने से पहले उसका परीक्षण जरूरी है। इंसान के अलावा अन्य प्राणियों पर भी ऐसे परीक्षण किए जाते हैं। दुनिया में सैकड़ों सालों से यह काम हो रहा है। मगर भारत के संदर्भ में ऐसे आरोप अर्से से लग रहे हैं कि यहां कई देशी और विदेशी कंपनियां अपनी दवाओं के परीक्षण के लिए गरीबों को गिनी पिग की तरह इस्तेमाल कर रही है। आरोप यह भी है कि ऐसे परीक्षणों के कारण कई मरीजों को गंभीर साइड इफेक्ट्स का सामना करना पड़ा है और उनकी सुध लेने का कोई नहीं आया। अमीर देशों में कड़े कानून होने के कारण वहां अपनी मर्जी के मुताबिक परीक्षण कर पाना इन कंपनियों के आसान नहीं होता। 

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भारत में परीक्षण करना सस्ता है :-

देश में इंसानों पर नई दवाओं का परीक्षण करना बेहद ही सस्ता है। अमेरिका में एक नई दवा के परीक्षण में औसतन $15 करोड़ खर्च होता है। वहीं यहां 60 फ़ीसदी कम खर्च में ही यह काम हो जाता है। दूसरा पहलू यह है कि अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत के अधिकांश डॉक्टर अंग्रेजी लिखने बोलने में सक्षम होते हैं। साथ ही यहां की जनसंख्या में जेनेटिक विविधता भी पाई जाती है, जो नई दवाइयों के परीक्षण के लिए एक अनुकूल स्थिति मानी जाती है।

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