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एससी/एसटी अधिनियम (SC/ST Act) के तहत केस दर्ज़ करवाने को लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने ये कहा!

एससी/एसटी एक्ट के तहत शिकायतकर्ता की जाति बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य शर्तः मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक सुनवाई के दौरान माना कि अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम के अन्तरगत शिकायतकर्ता की जाति विशेष महत्व रखती है और अनिवार्य है और यह नहीं माना जा सकता है कि शिकायतकर्ता एफआईआर (FIR) में यह उल्लेख करना भूल गया होगा कि हमलावरों ने उसकी जाति पर टिप्‍पणी नहीं की होगी।

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मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय जस्टिस सुबोध अभ्यंकर की खंडपीठ ने इन टिप्पणियों के साथ अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (5 ए) के अन्तरगत दर्ज कराये गये मामले में एक व्यक्ति के खिलाफ आरोप को खारिज कर दिया, जिस पर शिकायतकर्ता के खिलाफ जातिगत टिप्पणी करने का मामला दर्ज था।

क्या था पूरा मामला?

अलकेश और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में-

12 अप्रैल 2016 को अपीलार्थी और परिवादी के बीच झगड़ा हो गया था। जिसमें शिकायतकर्ता ने एफआईआर (FIR) में आरोप लगाया था कि मौके पर सभी धर्म व जाति के लोग थे और देखते-देखते विवाद बढ़ गया क्योंकि शिकायतकर्ता जगदीश को अपीलकर्ता नंबर एक अलकेश ने भीड़ में धकेल दिया था और शिकायतकर्ता ने अपीलकर्ता नंबर एक अलकेश के खिलाफ आपत्ति जताई ‌थी। मौके पर अलकेश और अन्य आरोपियों ने जगदीश पीटा भी। लेकिन शुरुआत में जो FIR आईपीसी (IPC) की धारा 294, 323, 506 और 34 के तहत मामला दर्ज किया गया था, लेकिन गवाह द्वारा एक महीने से अधिक समय के बाद दर्ज किए गए बयान के आधार पर, धारा 3 (2) (5ए), 3(1) (डी)(आर) एससी/एसटी एक्ट (SC/ST Act ) को भी चार्जशीट में जोड़ा गया।

हालांकि, आरोप तय करने के समय, धारा 3(1) को हटा दिया गया और आईपीसी (IPC) की धारा 294, 323, 506(2) और एससी/एसटी अधिनियम (SC/ST Act ) की धारा 3(2)(5ए) के तहत आरोप तय किए गए।

मामले में एससी/एसटी एक्ट (SC/ST Act ) की धारा 3(2)(5ए) के तहत जो आरोप तय किये गये उसको चुनौती देते हुए शिकायतकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया।

पूरे मामलें में न्यायालय की टिप्पणियां

मामले की सुनवाई में मध्य प्रदेश कोर्ट ने कहा, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि घटना के 28 दिन की देरी के बाद पहली बार जातिगत कोण सामने आया और वह भी सीआरपीसी (CrPC) की धारा 161 के तहत पूरक बयान में, जबकि एफआईआर (FIR) में शिकायतकर्ता की जाति का कोई उल्लेख था ही नहीं।

मामलें की विवेचना के बाद न्यायालय ने कहा, "...शिकायतकर्ता की जाति पर आक्षेप के संबंध में आरोप एक बाद का विचार था और बाद में केवल अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के कठोर प्रावधानों का लाभ उठाने की दृष्टि से लगाया गया है, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है।"

कोर्ट ने आगे कहा, "इस अदालत का सुविचारित मत है कि हालांकि यह सच है कि एफआईआर (FIR) घटना या घटना के आसपास के तथ्यों का एक एनसाइक्लोपीडिया नहीं है, हालांकि एफआईआर दर्ज करते समय कुछ बुनियादी आवश्यकताएं होती हैं, जिनके अवलोकन के बाद अपराध के सार के बारे में पता लगाने में कोई सक्षम हो सकता है, और शिकायतकर्ता की जाति कुछ ऐसी है, जिसे एफआईआर (FIR) दर्ज करते समय भूला नहीं जा सकता है, खासकर तब जब जाति ही मामले का एक महत्वपूर्ण पहलू हो।

शिकायतकर्ता की जाति एससी / एसटी अधिनियम (SC/ST Act ) के तहत एक मामले में सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य शर्त है और यह नहीं माना जा सकता है कि शिकायतकर्ता एफआईआर (FIR) में यह उल्लेख करना भूल जाएगा कि हमलावरों ने उसकी जाति के खिलाफ भी आरोप लगाए थे।"

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